सखि री, नंद-नंदन देखु।
धूरि-धूसर जटा जुटली, हरि किए हर-भेषु।
नील पाट पिरोइ मनि गन, फनिग धोखैं जाइ।
खुनखुना कर, हँसत हरि हर नचत डमरू बजाइ।
जलज-माल गुपाल पहिरे, कहा कहौं बनाइ।
मुंड-माला मनौ हर-गर, ऐसी सोभा पाइ।
स्वाति-सुत-माला बिराजत स्याम तन इहिं भाइ।
मनौ गंगा गौरि-डर हर लई कंठ लगाइ।
केहरि-नख निरखि हिरदै, रही नारि बिचारि।
बाल ससि मनु भाल तैं लै उर धरयौ त्रिपुरारि।
देखि अंग अनंग झझक्यौ, नंद-सुत हर जान।
सूर के हिरदै बसौ नित, स्याम-सिव कौ ध्यान।।170।।