संत हृदय वसुदेव जी का पुत्र प्रेम 3

संत हृदय वसुदेव जी का पुत्र प्रेम


‘हम ही बड़े मन्दभागी हैं जो हमने बालकपन में आपके घर में सुख नहीं पाया। माता-पिता के समीप बालक को कितनी प्रसन्नता होती है, कितना सुख मिलता है। सो हम लोग कंस से डरे हुए दूर-ही-दूर रहे। आप हमारे लिये तड़फड़ाते रहे, हम आपके लिये छटपटाते रहे। उस दुष्ट के द्वारा सताये हुए आपकी बिना सेवा किये, आपको बिना सुख पहुँचाये, हमारे ये दिन व्यर्थ ही गये। हे माता-पिता! हमारे इस विवशताजनित अपराध को क्षमा करें।’

इस प्रकार जब भगवान ने प्रेम में सनी हुई बातें कहीं तो वसुदेव जी उनके ऐश्वर्य को भूल गये। माता ने और वसुदेवजी ने दोनों अपने हृदय के टुकड़ों को छाती से चिपटा लिया। प्रेम के आँसुओं से उनके काले-काले घुँघराले बालों को भिगों दिया। अपने जीवन को सफल बनाया।

वसुदेवजी के बराबर कौन भाग्यवान हो सकता है, जिन्हें वे अखिल ब्रह्माण्ड नायक सदा पिता-पिता कहकर पुकारा करते थे, जिनकी शुश्रूषा साक्षात देवासुर वन्दित लक्ष्मी पति किया करते थे।

अन्त में भगवान ने कुरुक्षेत्र में ऋषियों के द्वारा वसुदेवजी को तत्त्व बोध कराया। पीछे जब वसुदेवजी ने भगवान के सम्मुख उस ज्ञान को प्रकट किया तो भगवान ने भी उसका अनुमोदन किया। भगवान ने उन्हें अपने असली रूप का परिचय कराया और अन्त में कहा-

अहं यूयमसावार्य इमे च द्वाराकौकस:।
सर्वेऽप्येवं यदुश्रेष्ठ विमृश्या: सचराचरम्‌॥
आत्मा ह्येक: स्वयंज्योतिर्नित्योऽन्यो निर्गुणो गुणै:।
आत्मसृष्टैस्तत्कृतेषु भूतेषु बहुधेयते॥[1]

‘हे पिता! हे यदुश्रेष्ठ! मैं, आप सब, बलदेवजी, समस्त द्वारकावासी, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जगत - ये सब एक ही हैं ऐसा जानो। आत्मा एक है, स्वयं ज्योति है, नित्य है, अनन्य तथा निर्गुण है, किंतु अपने ही द्वारा उत्पन्न किये हुए गुणों के कारण उन्हीं गुणों से उत्पन्न हुए नाना शरीरों में वह नाना रूपों में भासता है।’

इस प्रकार वसुदेवजी ने यथार्थ तत्त्व को समझ लिया। अन्त में जब प्रभास क्षेत्र में भगवान ने अपनी लीला संवरण की तब वसुदेवजी भी अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आकर भगवान के अनुयायी हुए। उन्हीं के मार्ग का अनुसरण किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।85।23-24

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