‘संत सुन्दरदासजी की प्रेमोपासना’
- प्रेमाधीना छाक्या डोलै। क्यौं का क्यौं ही वाँनी बोलै।।
- जैसे गोपी भूली देहा। ताकौं चाहै जासों नेहा।।
- कबहूँकै हँसि उठै नृत्य करि, रोवन लागै।
- कबहुँक गदगद कंठ, सब्द निकसै नहिं आगै।
- कबहुँक हृदय उमंगि, बहुत ऊँचे स्वर गावै।
- कबहुँक कै मुख मौनि, मगन ऐसैं रहि जावै।।
- चित्त वृत्त हरिसों लगी, सावधान कैसैं रहै।
- यह प्रेम लच्छना भक्ति है, शिष्य सुनहि सुंदर कहै।।
- नीर बिनु मीन दुखी, क्षीर बिनु सिसु जैसे,
- पीर जाकैं ओषधि बिनु, कैसैं रह्यौ जात है।
- चातक ज्यौं स्वातिबूँद, चंद को चकोर जैसें,
- चंदन की चाह करि, सर्प अकुलात है।।
- निर्धन कौं धन चाहैं, कामिनी कौं कन्त चाहै,
- ऐसी जाकै चाह तो कौं, कछु न सुहात है।
- प्रेम कौ भाव ऐसौ, प्रेम तहाँ नेम कैसौ,
- ‘सुन्दर’ कहत यह, प्रेम ही की बात है।।
- यह प्रेम भक्ति जाकैं घट होई, ताहि कछू न सुहावै।
- पुनि भूख तृषा नहिं लागै वाकौं, निस दिन नींद न आवै।।
- मुख ऊपर पीरी स्वासा सीरी, नैंन हु नीझर लायौ।
- ये प्रगट चिह्न दीसत हैं, ताकै प्रेम न दुरै दुरायौ।।
- प्रेम भक्ति यह मैं कही, जानैं विरला कोइ।
- हृदय कलुषता क्यौं रहै, जा घट ऐसी होइ।।
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