संत सुन्दरदास जी की प्रेमोपासना 2

‘संत सुन्दरदासजी की प्रेमोपासना’

डा. श्री नरेशजी झा, शास्त्र चूडामणि


प्रेमाधीना छाक्या डोलै। क्यौं का क्यौं ही वाँनी बोलै।।
जैसे गोपी भूली देहा। ताकौं चाहै जासों नेहा।।
कबहूँकै हँसि उठै नृत्य करि, रोवन लागै।
कबहुँक गदगद कंठ, सब्द निकसै नहिं आगै।
कबहुँक हृदय उमंगि, बहुत ऊँचे स्वर गावै।
कबहुँक कै मुख मौनि, मगन ऐसैं रहि जावै।।
चित्त वृत्त हरिसों लगी, सावधान कैसैं रहै।
यह प्रेम लच्छना भक्ति है, शिष्य सुनहि सुंदर कहै।।
नीर बिनु मीन दुखी, क्षीर बिनु सिसु जैसे,
पीर जाकैं ओषधि बिनु, कैसैं रह्यौ जात है।
चातक ज्यौं स्वातिबूँद, चंद को चकोर जैसें,
चंदन की चाह करि, सर्प अकुलात है।।
निर्धन कौं धन चाहैं, कामिनी कौं कन्त चाहै,
ऐसी जाकै चाह तो कौं, कछु न सुहात है।
प्रेम कौ भाव ऐसौ, प्रेम तहाँ नेम कैसौ,
‘सुन्दर’ कहत यह, प्रेम ही की बात है।।
यह प्रेम भक्ति जाकैं घट होई, ताहि कछू न सुहावै।
पुनि भूख तृषा नहिं लागै वाकौं, निस दिन नींद न आवै।।
मुख ऊपर पीरी स्वासा सीरी, नैंन हु नीझर लायौ।
ये प्रगट चिह्न दीसत हैं, ताकै प्रेम न दुरै दुरायौ।।
प्रेम भक्ति यह मैं कही, जानैं विरला कोइ।
हृदय कलुषता क्यौं रहै, जा घट ऐसी होइ।।

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