सँदेसनि सुनत प्रीति गति जानी।
चातक स्वाति बूँद लौ, सागर भरे देखियत पानी।।
दिन, दिन मोह बँध्यौ सुक नल ज्यौ बंसी धुनि कल कीन्ही।
उरझ्यौ मन पठयौ हम देखन, यही सुरति हम लीन्ही।।
निरगुन के ऐसे गुन सुमिरत, सुनि अलि सखा सनेही।
जिय हरि लियौ कौन ऐसौ हित, ‘सूर’ सुपोषत देही।।3774।।