श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. पिशाचोद्धार
ब्राह्मण ने सिर झुका लिया। वे सायंकाल संध्या के आसन पर ही सो गये थे। इसी छिद्र के कारण पिशाच द्वारा मारे गये। 'मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ।' श्रीकृष्णचन्द्र ब्राह्मण के चले जाने पर उठे। उन्होंने पिशाच के शरीर पर अपना अभय कर फेरा। उनके कर स्पर्श से तत्काल उसका स्वरूप ही दूसरा हो गया। अत्यन्त सुकुमार देह, घुँघराले केश, कमलनयन। वह तो सिद्ध हो गया। श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'जब तक वर्तमान इन्द्र रहेंगे, तुम स्वर्ग में रहो। इस इन्द्र के कार्यकाल की समाप्ति पर तुम्हें मेरा सायुज्य प्राप्त होगा।' तुम्हारा भाई भी स्वर्ग में रहेगा तुम्हारे साथ। 'तुम्हें और कुछ माँगना है?' 'आप में मेरी अविचल भक्ति रहे।' घण्टाकर्ण ने माँगा- 'इस अधम पिशाच पर आपने अनुग्रह किया, इस प्रसंग का जो श्रवण-स्मरण-चिन्तन करे, उसका समस्त कलुष नष्ट हो जाय और उसे भी आपकी भक्ति प्राप्त हो।' 'एवमस्तु।' मेघ-गम्भीर स्वर पुरुषोत्तम बोले- 'भद्र! अब तुम दोनों स्वर्ग पधारो। विमान लिये देवेन्द्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।' दण्डवत प्रणिपात करके दोनों विमान में बैठ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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