श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. पिशाचोद्धार
'जय नारायण जय गोविन्द दोनों कीर्तन करते नृत्य करने लगते थे। दोनों कभी रुदन करने लगते थे- 'हम दुष्कर्म रत पापी पिशाच, हमें भगवान वासुदेव कब दर्शन देंगे।' दोनों पिशाच थोड़ी दूरी पर प्रकट हुए। वे श्रीकृष्ण के समीप पहुँचे और नम्रतापूर्वक बोले- 'आप कौन हैं?' किसके पुत्र हैं? कहाँ से पधारे हैं? इस घोर वन में आप क्यों आये?' 'मैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने परिचय नहीं दिया -'कैलास जाना चाहता हूँ। यह तो परमपावन बदरिकाश्रम क्षेत्र हैं। यहाँ तपस्वी मुनिगण रहते हैं। दुष्ट जन इस भूमि में टिक नहीं पाते। यह तो सिद्ध-सेवित भूमि है। आज के समान कुत्तों का झुण्ड यहाँ कभी नहीं देखा गया। मांसभक्षी पिशाच भी पहिले कभी यहाँ प्रविष्ट नहीं हुए। यहाँ पशुवध नहीं करना चाहिये। मैं इस प्रदेश का शाश्वत संरक्षक हूँ। तुम दोनों कौन हो? कहाँ रहते हो? यह पिशाच सैन्य किसकी है? इस स्थान में आगे मत बढ़ो। इससे ऋषियों के तप में विघ्न पड़ेगा। सब यहीं रुको।' 'तुमने मेरा नाम सुना होगा। मैं घण्टाकर्ण नामक प्रसिद्ध पिशाच महेश्वर का अनुचर, कुबेर का सखा हूँ और यह काल का-भी-काल मेरा छोटा भाई है। कोई स्थान हमारे लिये अगम्य नहीं है। सेना मेरी है। कुत्ते मेरे हैं। भगवान नारायण के अर्चन के लिये यह आखेट हो रहा है।' पिशाच ने अपना परिचय दिया। 'मैं यहाँ कैलास से आया हूँ, जहाँ तुम जाना चाहते हो। मैं तो विष्णु-निन्दक था। कानों में घण्टे लटका रखे थे कि उनके नाम मेरे कर्ण में न पड़ें। मैं नैष्ठिक शिव भक्त था। कैलास जाकर मैंने भगवान महेश्वर की आराधना की। वे आशुतोष प्रसन्न हुए। वरदान माँगने को कहा, मैंने परमानन्दमयी मुक्ति माँगी। मेरे वे स्वामी संतुष्ट होकर बोले- 'मोक्ष मैं दे तो सकता हूँ; किन्तु तुम्हारे हृदय में मेरे ही आराध्य का द्वेष है। तुम नर-नारायणाश्रम में रहो और वहाँ जनार्दन की आराधना करके उन्हीं से मोक्ष प्राप्त करो।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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