श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. हंस-डिम्भक-मोक्ष
हँसते हुए भगवान वासुदेव बोले- 'मुझसे कर लेने की बात पहिले ही सुनने में आयी है। आप मेरे भक्त हैं, अतः व्यर्थ संकोच मत करें। आप उनके मित्र हैं, उनसे मेरा संदेश आप कहें, इस संकोच में मैं आपको नहीं डालूँगा। आपके साथ सात्यकि जायँगे और मेरा उत्तर देंगे उन्हें। आप केवल साक्षी बने रहें। मैं शारंग से छूटे शर, नन्दकखङ्क चक्र तथा कौमोदकी गदा से आघात करके रूप में देना पसन्द करता हूँ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने सात्यकि की ओर से अभिमुख होकर कहा- 'उन दोनों से जाकर कहो कि वे कोई स्थान निश्चित कर लें, मैं वहाँ सेना लेकर आ जाऊँगा।' अकेले सात्यकि अश्व पर बैठकर जनार्दन के साथ शाल्व नगर गये। वहाँ राजसभा में जनार्दन ने उन्हें आसन देकर उनका परिचय दिया- 'सुप्रसिद्ध धनुर्धर ये सात्यकि श्रीकृष्ण की दक्षिण भुजा स्वरूप हैं और उनका उत्तर लेकर आये हैं।' हंस ने कृष्ण, संकर्षण, उग्रसेन तथा यादवों की कुशल पूछी। वह सभी नामों को बिना 'श्री' लगाये बोलता गया, मानों अपने भृत्यों के विषय में पूछ रहा हो। सब सकुशल हैं, यह सात्यकि ने कह तो दिया; किन्तु क्रोध से उनका मुख लाल हो उठा। हंस ने जनार्दन से पूछा- 'तुम कृष्ण से मिले थे?' वहाँ का क्या समाचार है? हमारा अभीष्ट सिद्ध हुआ? जनार्दन बोले- 'मेरे जन्म-जन्म के पुण्य उदित थे, मैंने उन पुरुषोत्तम का दर्शन किया। देवर्षि नारद और महर्षि दुर्वासा भी वहीं थे। आपका सन्देश सुनकर देर तक यादवगण हँसते रहे। श्रीद्वारिकाधीश जानना चाहते थे कि आप दोनों भाई कहाँ, कब मिलेंगे उनसे। वहाँ का समाचार देने ही ये सात्यकि आये हैं।' 'जनार्दन! तुम मूर्ख हो। कृष्ण से मिलकर तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी।' जनार्दन चुपचाप निकल गये राजसभा से। तब हंस ने सात्यकि से कहा- 'तुम यहाँ किसलिये आये हो? उस नन्दपुत्र ने कौन-सा कर भेजा है या तुम्हें क्या संदेश देकर भेजा है?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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