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2. उपक्रम
उपास्य तत्त्व के रूपों के वर्णन में पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी, अवतार और अर्चा ये 6 भेद किये गये हैं।
- पर- यह सगुण साकार तत्त्व है और निर्गुण-निराकार से नित्य अभिन्न है। यह पर-तत्त्व ही उपास्य होता है। श्रद्धालु साधक की भावना के अनुरूप इसके नित्य धाम हैं एवं नित्य रूप हैं। वस्तुतः भावना की नहीं जाती- अन्त:करण में जागती है और उसी रूप में जागती है जिसका आधार कोई-न-कोई सगुण धाम एवं सगुण रूप है। नारायण, शिव, राम, कृष्ण, शक्ति, गणपति, सूर्य तथा इनके पास बैकुण्ठ, कैलास, साकेत, गोलोकादि। ये नित्यधाम एवं नित्य पर-रूप अनन्तानन्त ब्रह्माण्डाधीश के है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में जो उसके सृष्टिकर्ता, पालक, संहर्ता ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा इनके लोक हैं, ये परमार्थ-पथिक के उपास्य रूप नहीं हैं। ये तो परतत्त्व के अंशांश है।
- व्यूह- एक होकर भी परतत्त्व चतुर्धारूप में अभिव्यक्त होता है। जैसे व्यक्ति में जीव, अहंकार, चित्त और मन है, ऐसे ही अनन्त ब्रह्माण्डों की समष्टि के अधिष्ठाता परमात्मा वासुदेव, सम्पूर्ण समष्टि को अपना स्वरूप समझने वाले अहं तत्त्व संकर्षण, चित्त तत्त्व प्रद्युम्न, काम और मन:शक्ति अनिरुद्ध है। एक ब्रह्माण्ड की बात हो तो उसमें ईश्वर हिरण्यगर्भ विराट और तुरीय तत्त्व वासुदेव।
- अन्तर्यामी- अणु-अणु में जो उसका संचालक चेतन बैठा है। वह निर्गुण नहीं है, तटस्थ दृष्टा भी नहीं है। यह तो ‘उरप्रेरक’ है। गीता में इसी के लिये आया है-
‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।’ [1]
- अवतार- इसकी बहुत चर्चा शास्त्रों में है। ‘भगवान वासुदेव’ में भी थोड़ा वर्णन आ चुका है। पूर्ण, अंश, कला, आवेशादि अवतार के कई भेद वहाँ वर्णित हैं।
- अर्चा- भगवन्मूर्ति साक्षात भगवान हैं। यह मूर्ति दो प्रकार की होती हैं- नित्यसिद्ध और स्थापित। शालग्राम, नर्मदेश्वर, स्वयम्भूलिंग- ये नित्यसिद्ध अर्चा विग्रह हैं। प्राण-प्रतिष्ठा की गयी मूर्ति स्थापित हैं। जैसे आपका शरीर जड़ है, पञ्च भौतिक हैं, माता के पेट में बना, किन्तु उसमें उसके अभिमानी आप चेतन हैं। इसी प्रकार मूर्ति किसने बनायी, यह प्रश्न नहीं है। मूर्ति में प्रतिष्ठा के पश्चात भगवान स्वयं विराजते हैं। इनमें से अवतार होता है- भक्तों-सत्पुरुषों के परित्राण-कल्याण के लिये, पापी श्रुति-संत-विराधी दुष्टों के दलन के लिये और धर्म-स्थापना के लिये।
‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतान्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।’[2]
इसमें भी साधु-परित्राण ही प्रधान है और यह परित्राण केवल उसी समय नहीं होता। अवतार लेकर वे परमप्रभु जो चरित करते हैं, उसका स्मरण-चिंतन युग-युग तक अन्तःकरण के दुष्कृतों का विनाश करके, भक्ति धर्म की स्थापना करते हुए साधु परित्राण करता ही रहता है। वर्तमान मन्वन्तर की इस अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के बीते द्वापरान्त में परात्पर तत्त्व ने अवतार लिया। मथुरा में प्रकट होकर वे द्वारिका जा बसे। अन्तः अब उन 'श्रीद्वारिकाधीश' का चिन्तन करें।
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