श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. हंस-डिम्भक-मोक्ष
आखेट करके, पर्याप्त पशु मारकर तीनों पुष्कर पहुँचे। वहाँ उन्होंने सरोवर में स्नान किया। विश्राम किया। दूर से वेदमन्त्रों के सस्वर पाठ की ध्वनि आ रही थी। उसे सुनकर तीनों उधर चल पड़े। वहाँ महर्षि कश्यप का यज्ञ चल रहा था। तीनों ने मुनियों को प्रणाम किया। महर्षि ने उनका आतिथ्य सत्कार किया। इतने ऋषियों को एकत्र देखकर हंस के भीतर महत्त्वाकांक्षा जागी। उसने ऋषियों से कहा- 'हम दोनों के पिता महाराज ब्रह्मदत्त राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। इस सत्र के समाप्त होने पर आप सब मुनिगण मेरे पिता के यज्ञ में अपने शिष्यों तथा अग्नियों के साथ अवश्य पधारें। हम दोनों भाई अब दिग्विजय करेंगे।' ऋषि-मुनि अकारण किसी को असंतुष्ट या निराश नहीं किया करते। उन लोगों ने एक स्वर से कह दिया- 'यदि आप दिग्विजय कर लेंगे और यज्ञ प्रारंभ करेंगे तो हम सब अवश्य उसमें आवेंगे।' 'ये तो ठग हैं। श्रुति-शास्त्र-सम्प्रदाय भ्रष्ट, वर्णाश्रम वाह्य, भ्रान्त, पाखण्डी लोग।' हंस-डिम्भक अत्यन्त कर्मनिष्ठ थे। उनका बहुत अधिक आग्रह था श्रौतस्मार्त्त कर्म में। कर्म ही उनके मत में सर्वश्रेष्ठ एवं लोक-परलोक में कल्याण करने वाला था। उनको दया आयी। इन कर्मत्याग करके उनके मत से उभय भ्रष्ट हुए लोगों पर। उन्होंने निश्चय किया- 'इनके गुरु को ही पहिले धर्म मार्ग पर लगाया जाय तो इन सबका कल्याण होगा।' इस दया की प्रेरणा ने संसार में बहुत अनर्थ किये हैं। अज्ञानी, संकीर्ण विचार, किन्तु शक्ति सम्पन्न क्रूर निष्ठुर लोगों ने दयावश- अपने से भिन्न मार्ग पर चलने वाले लोगों को भ्रान्त मान लिया और उन्हें सत्यपथ पर लाने के लिये मनमाने अत्याचार किये। न मानने वालों का सामूहिक संहार कर दिया। हंस-डिम्भक को भी दया का यही पाशविक आवेश आ गया था। वे महर्षि दुर्वासा के समीप गये और संन्यासाश्रम की निन्दा करते बोले- 'तू तो मूर्तिमान दम्भ है अन्यथा तेरे इस त्याग का कोई दूसरा कारण तो है नहीं। तू मूढ़ इन लोगों का शिक्षक बना है, इन लोगों का भी नाश करेगा। इनको भी नरक में गिरायेगा। तुझ मन्दबुद्धि का कोई शासन करने वाला नहीं है? इस भ्रष्ट वेश को त्याग और विवाह करके गृहस्थ बन। हम तुम सबको कन्यायें दिला देंगे। पंचयज्ञ कर, देवता-पितरों का यजन-तर्पण कर, तब तुम सबको स्वर्ग मिलेगा। तुझे जीवित रहने की इच्छा हो तो हमारी बात मान।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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