श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. सुभद्रा-हरण
'हम केवल समाचार दे सकते हैं।' समाचार पहुँचा और सुनते ही श्रीसंकर्षण ने क्रोध से अरुण-नेत्र किये, फड़कते अधर उठ खड़े हुए। उनके हाथ उठाते ही उनके दिव्यायुध हल-मुशल हाथों में आ गये- 'अर्जुन को बहुत गर्व हो गया है गाण्डीव पाकर।' 'आर्य!' श्रीकृष्ण ने दोनों चरण पकड़ लिये बड़े भाई के- 'आपका वात्सल्य- भाजन है विजय और उसे दण्ड ही देना है तो आप मुझे आदेश दें, किन्तु........।' 'किन्तु क्या? तुम्हारी अनुमति मिली है इसमें उसे?' श्रीबलराम ने श्रीकृष्ण की ओर देखा। कुछ उग्र स्वर में ही पूछा। 'किन्तु सुभद्रा को सती होने से आप भी रोक नहीं पावेंगे यदि अर्जुन को आपने मार दिया।' श्रीकृष्णचन्द्र उठ खड़े हुए- 'मैं उसे यहीं खडे-खड़े मार देता हूँ। आप केवल आदेश दें। लेकिन सुभद्रा ने इस हरण में स्वयं सारथ्य किया है। वह आपकी बहिन है। एक बार एक पुरुष को स्वीकार कर लिया उसने तो उसके मारे जाने पर सह-मरण से उसे कोई रोक पावेगा?' 'सुभद्रा ने सारथ्य किया है?' श्रीबलराम का क्रोध शान्त होने लगा। 'अब आपको विजय का अनुग्रह करना चाहिये।' उद्धव ने प्रार्थना की। दूसरे सुहृद भी उनका समर्थन करने लगे थे। 'अच्छा, अर्जुन को बुला लो।' संकर्षण प्रसन्न हुए- 'मैं बहिन का सविधि विवाह करूँगा। अब पार्थ के लिये भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।' सात्यकि तीव्रगामी अश्व पर अविलम्ब बैठ गये। उन्होंने शंखध्वनि के संकेत से ही अर्जुन को मंगल-संदेश दिया तथा रुकने का भी। अर्जुन सुभद्रा के साथ लौट आये। उनका सत्कार किया श्रीबलराम ने। उत्तम मुहूर्त में सविधि विवाह हुआ और दहेज में तो श्रीकृष्ण-बलराम ने सब सीमायें तोड़ दीं। धनंजय बड़े उल्लास से सुभद्रा के साथ विदा किये गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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