श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. सुभद्रा-हरण
कालिन्दी जी भी सुभद्रा से अतिशय स्नेह करती थीं। उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र से और माता देवकी से भी कहा था- 'मध्यम पांडव के विदा होते ही सुभद्रा जी उदास हो गयीं- खोयी-खोयी-सी रहने लगीं। इनका हृदय ले गये वे। कहीं भी अन्यत्र इनका विवाह इन्हें बहुत व्यथा देगा।' माता देवकी ने वसुदेव जी से भी बात कर ली थी। सब सुभद्रा विवाह धनंजय से करना चाहते थे; किन्तु श्रीबलराम को साम्राज्ञी बनाने को उत्सुक थे। उनसे कुछ भी कहने का साहस पिता-माता ही नहीं कर पाते तो दूसरा कोई करे। अनन्त अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति-विनाश जिनके संकल्प के अनुसार महामाया करती रहती हैं, वे सत्य संकल्प और उनका संकल्प भी क्या- वे सदा से स्वजनवत्सल हैं। अपनों का प्रिय ही उनका सदा प्रिय रहा है। अपना अभिन्न सखा जो चाहता है, जिसमें सुखी हो और अनुजा को भी अभीष्ट है, वही तो श्रीकृष्ण को प्रिय है। वही श्रीकृष्ण का संकल्प और जो श्रीकृष्ण का संकल्प, उसे सार्थक करने के लिये देवी योगमाया का संयोग जुटाते क्या देर लगती है। पांडवों ने द्रुपदराज कुमारी को माता के आदेश से संयुक्त पत्नी बनाया तो भगवान व्यास ने उनमें परस्पर विवाद एवं मनोमालिन्य कभी उत्पन्न न हो, इसके लिये पथ-प्रशस्त कर दिया। उनकी सम्मति से पाँचों भाइयों ने नियम बनाया- 'पांचाली एक-एक वर्ष के लिये प्रत्येक की पत्नी रहेगी। जब वे एक की पत्नी हों, उस काल में एकान्त कक्ष में दोनों के रहते कोई अन्य भाई उस कक्ष में चला जाय तो उसे बारह वर्ष निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ेगा।' नियम चाहे जितना सामान्य हो- वह पुरुष की कसौटी कर लेता है। उस कसौटी पर जो खरा उतरे, उसका महामंगल सुनिश्चित है। द्रौपदी युधिष्ठिर के पास बैठी थीं एकान्त कक्ष में, और उसी कक्ष में अर्जुन का गाण्डीव धनुष रखा था। अचानक एक ब्राह्मण आर्त-पुकार करता आया। उसकी गायें दस्यु बलात लिये जा रहे थे। ब्राह्मण की गायों को बचाना प्रथम कर्तव्य था। अर्जुन सिर झुकाये गये उस कक्ष में और धनुष उठा लाये। ब्राह्मण के स्वत्व की रक्षा हो गयी। क्षत्रिय-धर्म-आर्त-आश्रित की रक्षा पूर्ण हुआ। अब अपने बनाये नियम की रक्षा करनी थी। युधिष्ठिर ने समझाया- 'वे दिन में केवल बैठे थे महारानी द्रौपदी के साथ। बड़े भाई-भाभी के कक्ष में उन दोनों के रहते भी छोटा-भाई जाये तो दोष नहीं है। ब्राह्मण की गायों की रक्षा राजा का कर्तव्य था। अर्जुन ने स्वयं बड़े भाई के धर्म की रक्षा की है।' नियम बनते समय तो हमने कोई ऐसा अपवाद नहीं माना है। सब अपवाद मानना दुर्बलता है।' अर्जुन नियम की कसौटी पर खरे उतरे। उन्होंने स्वेच्छापूर्वक बारह वर्ष का निर्वासन स्वीकार किया। इन्द्रप्रस्थ से निकल पड़े और देश में घूमते रहे। ग्यारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे जब वे यात्रा करते प्रभास क्षेत्र पहुँचे। 'श्रीसंकर्षण अपनी बहिन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने पर तुले हैं। दूसरे किसी को वे बहिन देना नहीं चाहते।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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