श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. उपक्रम
चित्त में तीव्र वैराग्य और व्यवहार में सम्यक कर्म-त्याग- यह ज्ञानयोग का अधिकारी है। ऐसे अधिकारी का ब्रह्म-विचार व्यक्तित्व के अंहकार का उच्छेद कर देगा। अन्तःकरण में तादात्म्य नहीं होगा तो स्वयं निष्क्रिय हो जायेगा। चेतन के तादात्म्यापन्न हुए बिना अन्तःकरण सक्रिय एवं वासनावान हो नहीं सकता। अब तो ऐसे तीव्र वैराग्यवान नहीं हैं- संसार के अधिकांश परमार्थ के जिज्ञासु नहीं हैं- उनके लिये? ‘न निर्विण्णे नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः।’[1] जो अत्यन्त विरक्त भी नहीं और अत्यन्त आसक्त भी नहीं, उसकी सफलता देने वाला भक्तियोग है। जो अत्यन्त आसक्त हैं उन्हें अभी कर्म करना ही है, संभव हो तो निष्काम कर्म उनका साधन है। यह न संभव हो तो अभी वे साधन ही नहीं हैं।’ भक्ति श्रद्धा समन्वित भजन है। बुद्धि से भले आप अद्वय, निर्गुण, निर्विकार तत्त्व का निश्चय करें, किन्तु यह दृश्यमान जगत क्या है? जगत तो निर्गुण नहीं है। फिर आप-भौतिक जगत और अध्यात्म तत्त्व के मध्य एक अधिदैव सत्ता भी है और वही जगत-संचालिका है- वह क्यों भूल जाते हैं? यह अधिदैव तत्त्व श्रद्धैकगम्य है। श्रुति-शास्त्र पर श्रद्धा करके परमतत्त्व का जो रूप उपलब्ध है, उसके विषय में कहा जा सकता है कि वह परमात्म तत्त्व निर्गुण-सगुण उभय रूप है। उसके ये दोनों स्वरूप परस्पर अभिन्न हैं। निर्गुण स्वरूप में तो देश, काल, द्रव्य की सत्ता ही नहीं है अतः उसे सर्वव्यापक कहना या सनातन कहना नहीं बनता। सर्वव्यापक देश में होगा, सनातन काल में होगा, किन्तु उस परम तत्त्व में तो देश-काल ही कल्पित हैं। सगुण तत्त्व को शास्वत, सर्वव्यापक कहा जाता है; किन्तु यहाँ भी ध्यान रखिये कि सगुण तत्त्व- विष्णु, शिव, राम या कृष्ण देश में व्यापक अथवा काल में नित्य नहीं हैं। देश और काल ही उनके अत्यन्त छुद्र-भासमान मात्र हैं। यह तथ्य सदा स्मरण रखन योग्य है। हमारी आपकी बहुत अधिक विवशता है कि हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव की पृष्ठभूमि को छोड़कर सोच या बोल नहीं सकते। एक जन्मान्ध को रंग कैसे समझाया जाय? इसी प्रकार हमारे आपके पास जो ऐन्द्रियक अनुभव है, उसी की भाषा में शास्त्र को हमें आपको समझाना पड़ता है। शास्त्र का समस्त प्रतिपादन मनुष्य के लिये है और मनुष्य की इस विवशता को ध्यान में रखकर किया गया है। शास्त्र परमात्मा को सच्चिदानन्द कहता है। सत्ता, ज्ञान और आनन्द। एक अद्वय परमात्मा में ही प्रकृति प्रतीयमान है। अतः प्रकृति की प्रतीति का आधार भी परमात्मा ही है। परमात्मा का सत प्रकृति का तमोगुण, चित रजोगुण और आनन्द सत्त्वगुण के रूप में प्रतीयमान हो रहा है। जब परमात्मा के स्वरूप भूत इन गुणों को शक्ति के रूप में वर्णन करना होता है तो सत को 'सन्धिनी शक्ति-सृजन शक्ति' कहते हैं, चित को 'संचित-ज्ञान शक्ति' कहते हैं और आनन्द को 'आह्लादिनी शक्ति' कहते हैं। ये परमात्मा से अभिन्न उनकी स्वरूपभूता शक्तियाँ हैं। हमारे सम्मुख यह जगत है और अब जगत हैं तो जगन्नियन्ता भी है। जो नियन्ता है वह निर्गुण कैसे होगा? वह अपने जगत से तटस्थ कैसे बैठा रहेगा? अतः उसका जब वर्णन किया जाता है, तब वह वर्णन उपासना के लिये होता है। वह उपास्य तत्त्व का वर्णन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 11.20.8
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