श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
14. परिहास-प्रिय
हमने तो उन जरासन्धादि राजाओं के भय से समुद्र में शरण ले रखी है। बलवानों से हमारी शत्रुता है। राज्य-सिंहासन न हमारा है, न हमारी संतान का होना है।' 'ये कहना क्या चाहते हैं?' देवी रुक्मिणी सन्न सुन रही थीं। 'अपने समान जिनका धन, आयु-जाति, रूप, ऐश्वर्य हो, उनमें ही विवाह और मित्रता उचित है। अपने से उत्तम या निम्न में यह सुखद नहीं होती। विदर्भ राजकुमारी तुमने यह विचार भली प्रकार किया नहीं। भिक्षुकों ने व्यर्थ हमारी प्रशंसा कर दी और उसके भुलावे में आकर तुमने हमारा वरण कर लिया।' 'हमसे शिशुपाल, जरासन्ध, शाल्व, दन्तवक्र और तुम्हारा भाई रुक्मी भी द्वेष करता है। उन गर्व से मत्त लोगों का घमण्ड तोड़ने के लिये मैं तुम्हें ले आया।' अब शीघ्रता से बोल गये- 'लेकिन कल्याणी! हम तो उदासीन पुरुष हैं। जैसे घर में निष्कम्प दीप-ज्योति हो, ऐसे आत्मलाभ में परिपूर्ण। हमको स्त्री-पुत्रादि की कोई कामना नहीं।' इतनी निष्ठुर वाणी, इतना निर्मम व्यंग- कल्पना भी जिसकी कोई न कर सके ऐसा परिहास। देवी रुक्मिणी सरल, निर्मल, हृदया। उनको लगा- 'ये मेरा परित्याग कर रहे हैं।' दूसरा क्या सोचती वे, जब कह दिया गया- 'अपने अनुरूप किसी क्षत्रिय-श्रेष्ठ का वरण कर लो।' जो अपने हैं, अपने जीवन-प्राण हैं, सर्वस्व हैं, वे ऐसा कहते हैं? भय, शोक व्याकुलता- नेत्रों से अश्रु प्रवाह फूट पड़ा। हृदय काँपने लगा। सिर झुक गया। चिन्ता- क्या होगा अब? चरणों के नखों से भूमि कुरेदती दो क्षण वे खड़ी रहीं। मुख से एक शब्द नहीं निकल सका। दुःख, भय, शोक- प्रियतम के परित्याग की आशंका- हाथ से व्यंजन छूट गिरा। सहसा मूर्च्छित होकर वे गिरीं। अत्यन्त शीघ्रता से श्रीकृष्णचन्द्र ने भूमि पर गिरती प्रियतमा पत्नी को अपनी चारों भुजाओं मे सम्हाल कर अंक में ले लिया। उनकी अस्तव्यस्त-केशराशि सम्हाली और उनके अश्रु सिंचित कपोल पोंछे। उन अनन्या परमसती को उठाकर हृदय से लगा लिया। 'प्रिये! यह क्या? इतनी दुःखी हो गयीं तुम? तुम तो परिहास भी नहीं समझती हो। मैंने तो तुमसे परिहास किया। मैं जानता हूँ कि तुम मेरे परायणा हो; किन्तु मैं तो सोचता था कि तुम रुष्ट होगी, तुम्हारा मुख क्रोधारुण होगा, तुम्हारे अधर फड़केंगे, तुम्हारी सुन्दर भौंहें अधिक कुटिल होंगी, कुछ अरुण नेत्र करके, टेढ़े दृगों से देखकर कुछ कहोगी। तुम्हारी यह शोभा देखने के लिये मैंने परिहास किया। और गृहस्थ पत्नी से हास-परिहास नहीं करे तो दाम्पत्य के सुख का लाभ?' अत्यन्त आर्द्र स्वर, ममतामय भंगी में श्रीकृष्णचन्द्र ने आश्वासन दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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