श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सुलक्षणा-लक्ष्मणा
सहसा गगन में देव-दुन्दुभियाँ बजने लगीं। आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी। सुर हर्ष विह्वल हो उठे थे तो मद्र नरेश के स्वजनों-परिजनों के हर्ष का पारावार कहाँ? जयध्वनि, शंखध्वनि, वाद्यध्वनि गूँज रही थी। पुष्पवर्षा हो रही थी और उसी समय राजकुमारी सखियों से घिरी कनकोज्ज्वल रत्नमाला करों में लिये मंद-मराल गति से चलती रंगस्थल में पधारीं। उन्होंने एक बार पूरे समाज पर, समस्त सभा पर दृष्टि डाली और श्रीकृष्णचन्द्र के कण्ठ में वरमाला डाल दी। 'छीन लो राजकन्या।' राजाओं, राजकुमारों का एक बड़ा समूह क्रोध से चिल्लाया। वे अपने धनुष चढ़ाने लगे। 'कौन हैं ये श्रृगाल।' भीमसेन ने गदा उठायी और धनंजय ने गाण्डीव ज्या सज्ज करके चुनौती दी विरोध करने वालों को। दारुक रथ बढ़ा लाये थे इतनी देर में। श्रीकृष्ण ने राजकन्या को उठाकर रथ में बैठा दिया और वे चतुर्भुज शारंगधन्वा बोले- 'भाई भीमसेन! अर्जुन! दो क्षण रुको। मैं अकेला ही पर्याप्त हूँ प्रतिपक्ष के लिये।' दारुक ने रथ हाँक दिया। श्रीकृष्णचन्द्र जब शारंग चढ़ाये बैठे हैं रथ पर- उनको सहायता की अपेक्षा और आवश्यकता कहाँ है। भीमसेन और अर्जुन ने साथ जाने का आग्रह नहीं किया। केवल अर्जुन ने कहा- 'इन भाग्यहीनों के साथ रहने के कारण हमें भी द्वारिकाधीश के विवाह में सम्मिलित होने के सौभाग्य से वंचित होना पड़ा।' बड़ी निराशा की प्रतिक्रिया थी- बड़ा रोष था उन लोगों को जो धनुष उठा भी नहीं सके थे, उठाकर भी झुका नहीं सके थे या झुकाने के प्रयत्न में स्वयं दूर जा गिरे और उपहासास्पद बने थे। वे अब अपने रथों पर बैठे सैनिक लिये पथावरोध करने मार्ग में जा पहुँचे थे। उन्होंने मुख्य मार्ग को छोटे उपमार्ग से जाकर रोकने का प्रयत्न किया। ऐसे मूर्खतापूर्ण प्रयत्न का जो परिणाम होना था, वही हुआ। बहुतों के मस्तक, कर या पैर कट गये। बहुत मारे गये और जो बचकर भागे- वे भी अत्यधिक आहत हो गये थे। शारंग से होती शर-वर्षा सुरासुर सबके लिये असह्य है, वे वेचारे तो सामान्य मानव ही थे। महाराज वृहत्सेन ने रथों, गजों, अश्वों, सेवकों, सेविकाओं का समूह तथा रत्नालंकार, वस्त्रादि अपार दहेज द्वारिका भेज दिया। सविधि विवाह तो द्वारिका में ही सम्पन्न होना था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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