श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. भाग्यशालिनी भद्रा
भद्रा तो कौमारावस्था के प्रारम्भ से संकोचमयी हो गयी थीं। उन्होंने अपनी सिद्धि का उपयोग त्याग ही दिया था। द्वारिका में उनसे एक दिन सत्यभामा जी ने पूछा था- 'बहिन! तुम कभी लड़का बनी हो?' 'छिः।' भद्रा ने मुँह बिगाड़ लिया- 'बहिन आपके आराध्य के श्रीचरण मैं लड़की न होती तो मिलते मुझे? मैं तो जन्म से लड़की ही रहना चाहती हूँ और चाहती हूँ कि ये जनार्दन ही मेरा कर-ग्रहण करते रहें।' भद्रा में रूक्षता, पौरुष का नाम नहीं था। वे अतिशय लज्जाशीला, संकोचमयी, छुईमुई जैसी सुकुमारी थीं। द्वारिका में भी स्वामी के अनुरोध से केवल अन्तपुर के एकादि में देव, गन्धर्व, नाग, यक्ष तथा विविध प्रदेशों की कन्याओं का रूप वे अपने स्वामी के विनोद के लिये बना लेती थीं- केवल कुमारियों का रूप। शैशव में भी भले वे बिल्ली या शशक कन्या बनी हों- नर कभी नहीं बनीं। नरत्व का संकल्प ही उनके हृदय में नहीं जगता था और कोई विवाहिता नारी का रूप बनाना तो मानसिक अधर्म था। यह बात तो सोचने की भी नहीं थी। उनके लिये। माता ने पुत्री से पूछ देखा था। उनकी कन्या इतनी लज्जाशीला थी कि विवाह की चर्चा से ही भागकर कहीं छिप जाती थी। माता ही नहीं पूछ पाती थीं तो भाई कैसे छोटी बहिन से पूछ लेते। 'वह प्रसन्न होती है। छिपकर सुनती है।' राजमाता श्रुतकीर्ति को और राजकुमार सन्तर्दन को एक क्षण के लिये भी कोई विकल्प कभी नहीं था। कोई सन्देह भी नहीं था कि वसुदेव जी कैकय-नरेश की कन्या का नारियल अपने घनश्याम कुमार के लिये स्वीकार करेंगे या नहीं। यह तो उन्हें अपना स्वत्व लगता था। भद्रा विवाह याग्य हुई और उन्होंने ब्राह्मण नारियल देकर द्वारिका भेज दिया। श्रीकृष्ण का यह विवाह सम्पूर्ण ब्राह्म-विवाह था। कहीं कोई विघ्न कोई बाधा नहीं आनी थी। द्वारिका से भरपूर धूमधाम से सज्जित होकर बारात निकली। यह पहिली बारात थी जिसमें वसुदेव जी और यदुवृद्ध सम्मिलित होने का सुयोग पा सके। द्वारिका से विवाह के लिये जाने वाली यह पहिली बारात थी। महाराज उग्रसेन महासेनापति अनाधृष्ट और कुछ प्रमुख शूरों को नगर में छोड़ना पड़ा। नगर अरक्षित- सूना नहीं छोड़ा जा सकता था। विवशता थी, अन्यथा श्रीकृष्ण के विवाह में जाने की उत्सुकता किसके हृदय में नहीं थी। बारात को दूर जाना था। चतुरंगिणी सेना साथ थी। मार्ग में ही स्वागत प्रारम्भ हो गया। सम्पूर्ण विधि से, बड़े उत्साह से सन्तर्दन ने बहिन का विवाह किया। कैकय के राज्य की सर्वश्रेष्ठ मणियाँ, अश्व, गज आदि दहेज में दिये। एकमात्र बहिन का विवाह था- इतनी उमंग, इतना उल्लास जीवन में फिर कहाँ मिलना था। कठिनाई से पर्याप्त समय रुककर तब नववधू को लेकर बारात विदा हो सकी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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