श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. सत्या : नाग्नजिती
'महाराज नग्नजित की कुमारी को महाराज द्वारा पालित वृषभों का निग्रह करके ही पाया जा सकता है। वे वीराभिमानियों की निकषा बन गयी हैं और अब तक तो धरा दक्षिण कौसल के लिये वीरशून्य ही दीखती हैं।' वन्दीजन यह विरदावली गाते, एक राज्य से दूसरे राज्य में घूम रहे थे। उनमें-से एक द्वारिका भी पहुँच गया और उसने यादव राजसभा को अपनी ललकार सुना दी। 'तुम चलोगे?' श्रीकृष्णचन्द्र ने सखा की ओर देखा। अर्जुन पहिली बार द्वारिका आये थे। 'तुम्हारे साथ चल सकता हूँ।' पार्थ ने हँसकर कहा- 'किन्तु गायों-वृषभों से मेरा परिचय कम ही है। उन्हें चराने, साधने का काम बचपन से तुमने किया है।' 'तुम साथ चलो।' श्रीकृष्णचन्द्र ने अर्जुन से कहा और सात्यकि को सैन्य-सज्जित करने का आदेश दे दिया। एक ही रथ में बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन विशाल नारायणी सेना को साथ लिये दक्षिण कौसल पहुँचे। महाराज नग्नजित ने अपने बन्धु-बान्धवों के साथ आगे आकर स्वागत किया। 'श्रीद्वारिकाधीश पधारें।' कौन वज्रहृदय है जो सुनते ही नेत्रों को- जीवन को कृतार्थ करने दर्शनार्थ दौड़ न पड़े। नगर के नर-नारी सब दौड़ पड़े थे। जो कुल-बधुएँ बाहर नहीं जा सकती थीं, उनके नेत्र गवाक्षों पर लग गये थे। राजकन्या ने भी गवाक्ष से देखा और उसका हृदय उसके पास नहीं रह गया। अब तक जो राजकुमार आते थे, राजकुमारी सत्या को दया आती थी उन पर। वह एक को भी देखने के लिये उत्सुक नहीं हुई; किन्तु आज जो आये- 'यही-यही तो उसके आराध्य हैं। इन्हीं चरणों की तो वह दासी है।' 'यदि मैंने कभी किसी पुरुष की ओर सतृष्ण दृष्टि न डाली हो, यदि मेरा कौमारव्रत मन से भी अखण्डित हो तो ये सर्वज्ञ मेरे संकल्प को सत्य करें।' राजकुमारी परमधार्मिक पिता की पुत्री, सहसा चौंक गयीं- 'मेरा व्रत, मेरा धर्म किस गणना में है? भगवान गंगाधर, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी और सभी लोकपाल जिनकी चरण रज अपने मस्तक पर चढ़ाकर अपने को कृतकृत्य मानते हैं, उन्हें कोई व्रत तुष्ट करेगा? बहुत तुच्छ साधनहीना, असमर्था हूँ मैं। ये अनन्त करुणार्णव अपनी अहैतु की कृपा से ही इस नगण्या पर सन्तुष्ट हों।' राजकुमारी देह को ही भूल गयीं तो कैसे स्मरण हो कि गवाक्ष से सटी कब तक बैठी रहीं वे। महाराज नग्नजित श्रीकृष्णचन्द्र को राजसदन में ले आये। पार्थ तथा सार्थ आये सबका भली प्रकार पूजन-सत्कार किया उन्होंने। अन्त में हाथ जोड़कर खड़े हो गये द्वारिकाधीश के सम्मुख- 'देव देव! जगदीश्वर! आपने अनुग्रह करके, स्वयं पधारकर मुझे पवित्र कर दिया। मेरा गृह, मेरा कुल पावन हो गया आपकी चरण रज पाकर। आप पूर्णकाम की मैं क्या सेवा कर सकता हूँ। मुझ तुच्छ की शक्ति ही कितनी है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज