श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. कालिन्दी-कल्याण
सभी भाई- सब अच्छे भाई छोटी बहिन से स्नेह करते हैं; किन्तु कर्मनियन्ता यमराज की स्नेह भाजना छोटी बहिन- सब का द्वारिका में सम्मान मिला देवी कालिन्दी को। जो बड़े थे- पुरुष और नारियाँ भी- पूज्य थे, वे भी सदा इनका सम्मान करते रहे। इनके द्वारा सेवा लेने में सबको संकोच होता था। इनकी वन्दना को स्वीकार करने में भी सब मर्यादा की विवशता स्मरण करते थे। 'मैं हठी थी। भाई का श्याम वर्ण ही मुझे प्रिय था।' भाई ने पिता से कहा तो मैंने उनसे कह दिया- 'मैं विवाह करूंगी तो ऐसे ही इन्दीवर सुन्दर, इनसे भी अधिक प्रभावशाली से अन्यथा मैं कुमारी ही रहूँगी।' 'तुम ठीक कहती हो।' तुम सदा से जिनकी हो, उनका आकर्षण ही तुम्हें विवश कर रहा है। पिता ने गम्भीर होकर कहा- 'मैं स्वयं और यह यम जिनके अंश हैं, उन इन्दीवर सुन्दर, जगन्नियन्ता, कमल लोचन, चतुर्भुज भगवान वासुदेव से ही तुम्हारा विवाह संभव है; किन्तु वत्से! वे लोकमहेश्वर जब तक स्वयं प्रसन्न होकर वरण न करें, उन्हें पाया नहीं जा सकता। उनको प्राप्त करने के लिये दीर्घकालीन तप- आराधना आवश्यक है और उनकी कृपा की प्रतीक्षा भी।' 'मैं सुनते ही चमत्कृत हो गयी। मुझे लगा कि मेरा हृदय यही चाहता था, निश्चय यही। मैं स्वयं समझ नहीं पाती थी अपने अन्तर की माँग।' पिता के मुख से मेरे हृदय की पुकार व्यक्त हुई थी। मैंने कह दिया- 'मैं तप करूँगी- आराधना करूँगी और अनन्तकाल तक प्रतीक्षा करूँगी। वे अनाथाश्रय दयाधाम कभी तो दया द्रवित होंगे।' मैं उसी क्षण वहीं तप प्रारंभ कर देती, किन्तु पिता ने समझाया- 'यहाँ देवलोक में कोई कर्म फलदाता नहीं बनता। मुझे कर्मभूमि धरा पर जाना चाहिये।' 'पिता की आज्ञानुसार द्रवरूप धारण करके मैं नगाधिप के शिखर पर उतरी। मेरे अवतरण के कारण उस शिखर का नाम कालिन्द-गिरि पड़ गया। हम देवता सत्य संकल्प होते हैं- अतः मेरा वह द्रवरूप-सरिता रूप शरीर कल्पान्त नित्य हो गया धरा पर। मैं उस रूप से प्राणियों को तृप्ति दान करने लगी।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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