श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
8. कलंक-मोचन
श्रीकृष्ण की बात का कोई प्रतिवाद नहीं। धर्मशास्त्र संगत बात है। जिसके समीप स्वर्णदायिनी मणि थी, उसको किसी से ऋण लेने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती। 'स्यमन्तक मणि किसी के लिये शुभ नहीं हुई। वह जिसके समीप गयी, उसी के लिये अनर्थकारिणी हुई।' श्रीकृष्ण ने एक बार सभासदों पर दृष्टि डाल ली। 'और किसी के लिये उसे रखना कठिन है। आपके पास भी वह इसलिये बिना अमंगल किये है, क्योंकि आप उससे प्राप्त स्वर्ण अपने उपयोग में नहीं लेते। उससे यज्ञ कर देते हैं। आपका व्रत श्लाघनीय है। अतः मणि आपके समीप ही रहनी चाहिये।' मणि वस्तुतः समस्या बन चुकी थी। वह स्वत्व एवं सम्मान का प्रतीक बन गयी थी। महाराज उग्रसेन के लिये माँगी गयी पहिले, श्रीबलराम ज्येष्ठ भ्राता थे, पट्टमहिषी रुक्मिणी का स्वत्व पहिले, जाम्बवती देवी की दहेज थी, सत्यभामा के पिता की सम्पत्ति थी, सब चाहते थे उसे; किन्तु मणि अशुभ है, यह तो किसी ने नहीं सोचा था। स्वर्ण का लोभ किसी को नहीं था। मणि के सम्बन्ध की इस नवीन सूचना ने सबको उसके प्रति उपेक्षापूर्ण कर दिया। 'मेरे अग्रज मणि के सम्बन्ध में मुझ पर विश्वास नहीं करते हैं, अतः आप केवल मणि दिखला दें।' श्रीकृष्ण की बात समाप्त होते ही अक्रूर ने वस्त्रों के कई आवरण में छिपाकर रखी मणि निकालकर उनके हाथ पर रख दी। सबको दिखलाकर मणि अक्रूर को लौटा दी गयी। लज्जित अक्रूर अपने भवन गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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