श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
8. कलंक-मोचन
'आर्य! आप मुझ पर अविश्वास करते हैं? मुझ अपने अनुज पर?' श्रीकृष्ण का सन्देश आया- 'अन्ततः स्यमन्तक ऐसी मणि तो नहीं कि उसे छिपाकर रखा जा सके। उससे प्रकट स्वर्ण भार कोई कब तक छिपा सकेगा। मणि द्वारिका में नहीं है- यह विश्वास करें और पधारें।' भाई का अनुरोध टाला नहीं जा सकता था। मणि की विशेषता उसे छिपने नहीं दे सकती, यह बात भी ठीक थी। अपने स्वजनों-परिवार से दूर रहते हुए बहुत दिन बीत चुके थे। श्रीसंकर्षण अन्ततः द्वारिका लौट आये। 'श्रीश्वफल्क जी की विशेषता थी कि जहाँ जाते थे वहाँ वर्षा हो जाती थी। काशी में अकाल पड़ा तो वहाँ के नरेश ने उन्हें काशी बुलाया। उनके वहाँ पहुँचते ही काशी में वर्षा हो गयी। इससे प्रसन्न होकर काशी नरेश ने उन्हें अपनी कन्या गान्दिनी विवाह दी थी।' द्वारिका में यह चर्चा फैलने लगी- 'उनके पुत्र अक्रूर में पिता से अधिक प्रभाव है। वे जहाँ जाते हैं, वहाँ वर्षा हो जाती है। वहाँ महामारी या दूसरा कोई दैविक-भौतिक उत्पात होता हो तो दूर हो जाता है।' शतधन्वा मार दिया गया, यह समाचार श्रीकृष्ण के लौटते ही अक्रूर- कृतवर्मा को मिल गया था। शतधन्वा को उभाड़ने वाले ये दोनों भयभीत होकर उसी समय द्वारिका से भाग गये थे। अक्रूर के सम्बन्ध में उनके यश की यह गाथा लोक में फैलने लगी थी। 'अक्रूर में यह प्रभाव सहज तो नहीं है?' एक दिन उद्धव ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा- 'जानता हूँ।' गम्भीर होकर द्वारिकाधीश बोले- 'तुम उनको द्वारिका ले आओ। उन्हें किसी भी कारण भय नहीं करना चाहिये।' अक्रूर जानते हैं कि जगदीश्वर श्रीकृष्ण से बचकर त्रिलोकी में कहीं भागा नहीं जा सकता। श्रीकृष्ण के स्वरूप का साक्षात्कार किया है उन्होंने। अब उन्हें अभय देकर बुलाया गया है तो द्वारिका आना ही चाहिये। अक्रूर आये और सीधे राजसभा में बुला लिये गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने उनका स्वागत किया। उनकी कीर्ति की प्रशंसा की। कहा- 'चाचा जी! आपका स्नेह सदा रहा है मुझ पर। अब भी आप कृपा करेंगे, यह मुझे विश्वास है। मुझे पता है कि शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि आपके पास छोड़ी है। आप इधर वर्षों से लगातार यज्ञ कर रहे हैं और उन यज्ञों में स्वर्ण की वेदियाँ बनवाते हैं।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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