श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
7. सत्यभामा-परिणय
'मणि देवी जाम्बवती का दहेज है।' सभा में कई बार स्वर साथ उठे- 'उनके पिता का ठीक स्तत्त्व था मणि पर।' कोई नहीं चाहता था कि मणि सत्राजित को लौटायी जाये। इसका अब कोई औचित्य नहीं था। स्वयं सत्राजित चाहते थे कि मणि श्रीकृष्णचन्द्र रख लें तो अच्छा हो। इससे कुछ तो उनके ऊपर लोगों का आक्रोश घटेगा। 'लेकिन यह आपको भगवान भास्कर ने प्रसाद स्वरूप प्रदान की है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने किसी की बात पर ध्यान नहीं दिया- 'यह आपकी है। आप इसे ग्रहण करें।' किसी प्रकार सत्राजित ने मणि ले ली। लेना पड़ा उन्हें। सिर झुकाये ग्लानि से खिन्न अपने भवन चले गये वे। उन्होंने पूरे मार्ग पर लोगों की व्यंगोक्तियां सुनीं- 'यह लोभी! यह अर्थ-पिशाच! यह द्वारिकाधीश तक को अपने जैसा समझता है। मणि से प्राप्त स्वर्ण अब भरता रहे अपने गृह में।' सचमुच सत्राजित को मणि से प्राप्त स्वर्ण अब अपने भवन में ही भरना था। कोई भिक्षुक भी उसका दान लेने को प्रस्तुत नहीं था। वह और उसका धन द्वारिका में तिरस्करणीय हो गया। कोई उससे न मिलना चाहता था, न बोलना चाहता था। द्वारिका में महोत्सव हुआ- श्रीकृष्णचन्द्र का विवाह महोत्सव। विधिपूर्वक उन द्वारिकाधीश ने जाम्बवती से विवाह किया। द्वारिका का जन-जन आनन्दमग्न हुआ; किन्तु सत्रजित अपने सदन से बाहर निकलने में भी भयभीत, संकुचित था। उसे सर्वत्र ही तो लोग तिरस्कृत करते थे। उसका प्रतिदिन बढ़ता स्वर्ण उसके लिए विष बन गया। 'जाम्बवती का पाणि-ग्रहण किया श्रीकृष्ण ने और महाभाग जाम्बवान ने मणि दहेज में दे दी अपनी पुत्री को। सत्रजित को प्रकाश मिला तिरस्कार-ग्लानि-दुःख के उस अपार अन्धकार में- 'उसके भी एक कन्या है। एकमात्र सन्तान है उसकी, और सुन्दर है- अतिशय सुन्दर है। कृतवर्मा जैसे सेनापति ने उसकी याचना की, अक्रूर उसे अपने पुत्र के लिए मांगने आये। कितने लोग आते हैं, कितने शूर-प्रतापी, विख्यात लोग। सत्राजित अभी तक सबको प्रतीक्षा करने को कह देते हैं। उनकी कन्या महारत्न है और मणि उनके पास है ही। जाम्बवन्त के समान वे श्रीकृष्ण को कन्यादान करके उसके दहेज में मणि देंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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