श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
91. उपसंहार
श्रीजगन्नाथ- कुरुक्षेत्र में ग्रहण स्नान के समय व्रज के लोग मिले। उनकी सरलता, उनका सहज शील, उनका प्रेम- अतर्क्य प्रेम देखकर तो द्वारिका के सभी विस्मित हो उठे थे। गोपियों का प्रेम! सभी महारानियों को लगा था कि उनका यही बहुत सौभाग्य है कि भू-भार हरण का कार्य समाप्त नहीं हुआ अन्यथा गोपियों को छोड़कर उनके स्वामी उनके समीप रुकें क्षणभर को भी ऐसी कोई विशेषता उनमें नहीं। श्रीकीर्तिकुमारी की बात छोड़ भी दी जाय क्योंकि उन महाभाव की साकार मूर्ति से स्पर्धा, तुलना की तो कल्पना भी अपराध है, किन्तु महारानियों को भी यह स्पष्ट लग गया कि किसी भी गोपी के पुत्र का सहस्रांश भी प्राप्त हो जाय उन्हें तो वे धन्य हो जायें। 'श्रीराधा तथा इन गोपियों के साथ कैसी रस-क्रीड़ा हुई होगी?' जिस क्रीड़ा का स्मरण भी अब तक श्रीकृष्णचन्द्र को भाव-विभोर कर देता है जिसकी स्मृति ने गोपियों की यह सुर-मुनि वन्दित स्थित प्रदान की है, वह क्रीड़ा कैसी होगी? दूसरे सूर्यग्रहण स्नान के पश्चात वे श्रीव्रजयुवराज्ञी गोपियों के साथ द्वारिका आ गयी थीं और द्वारिका के समीप उनका दूसरा अन्तःपुर बस गया था। उनसे सख्य हो गया था श्रीकृष्णचन्द्र की रानियों का किन्तु इस कठिनाई का कोई उपाय नहीं निकल सका कि किसी भी गोपी से वृन्दावन के रास, रसक्रीड़ा की चर्चा करते ही वह रुदन करने लगती थी और व्याकुल होकर मूर्च्छित हो जाती थी। श्रीरामेश्वरी से तो उसकी चर्चा का साहस ही किसी को नहीं हुआ क्योंकि उनकी अवस्था तो प्रीति का नाम लेते ही चिन्तनीय हो उठती थी। द्वारिका के अन्तःपुर में केवल माता रोहिणी थीं जो व्रज में रहीं थीं। महारानी कालिन्दी ने तो अपने को कभी प्रकट ही नहीं किया। उन्होंने तो कह दिया था- 'मैं तो इन्द्रप्रस्थ के समीप अपने इन आराध्य के चरणस्पर्श की कामना से तप कर रही थी।' माता रोहिणी अत्यन्त एकान्तप्रिय थीं। वे किसी उत्सव-समारोह में भी भाग नहीं लेती थीं। यद्यपि वे वात्सल्यमयी सबसे सुप्रसन्न थीं किन्तु उनकी गम्भीरता अभेद्य लगती थी। जब उत्सुकता अभीप्सा बन जाती है केवल लालसा बनकर रुक नहीं जाती तो कोई मार्ग भी मिल ही जाता है। श्रीकृष्णचन्द्र की सभी रानियाँ एक दिन एक साथ माता रोहिणी के सदन में उनके समीप पहुँचीं और उनकी चरण-वन्दना करके बैठ गयीं। सबने अतिशय नम्रता से प्रार्थना की कि माता उन्हें श्रीद्वारिकाधीश की व्रज की रासक्रीड़ा का वर्णन सुनाने का अनुग्रह करें। 'मुझे बहुत कम पता है।' माता ने अपना पिण्ड छुड़ाना चाहा- 'मैं जान भी कैसे सकती थी। केवल उतना ही जानती हूँ जितना उन लड़कियों ने रोते-सिसकते लज्जा-संकोचपूर्वक तब कह दिया। जब इन नवधन सुन्दर के व्रज से मथुरा चले आने पर वे इनके वियोग में अपने आपे में नहीं रह गयीं। मेरे अंक में मुख छिपाकर क्रन्दन करतीं उन बालिकाओं की वाणी से उस अवस्था में निकली वे बातें मेरे कहने योग्य हैं?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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