श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. विदा
'तुम पर सदा मुझे अतिशय स्नेह रहा है। अब यह तुम्हारा अन्तिम जन्म है। तुम्हें अब और कोई शरीर नहीं प्राप्त होगा। मोक्ष तुम्हारा स्वरूप है। दूसरे किसी के लिए भी दुर्लभ स्वात्म-प्रकाशक ज्ञान मैं तुम्हें देता हूँ। जो मैंने सृष्टि के प्रारम्भ में पद्मयोनि के प्रलयाब्धि में एकाकी कमल पर बैठे उन्हें दिया था। इस ज्ञान को ही विद्वान तत्त्वज्ञ भागवत कहते हैं।' इस प्रकार आदर एवं स्नेह पूर्वक श्रीकृष्णचन्द्र के कहने पर उद्धव का पूरा शरीर रोमांचित हो गया। उनके नेत्रों से अश्रुधारा चलने लगी। गद्गद कण्ठ से उन्होंने उस ज्ञानोपदेश की प्रार्थना की। किसी के पैर में काँटा लग जाता है तो उसकी पीड़ा व्यक्ति को बेचैन कर देती है। तनिक बड़ा काँटा लगा हो तो क्या पूछना और जिनके पैर में कभी कील चुभ गयी हो वही उसकी पीड़ा समझ सकते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र के वाम पाद तल के ठीक मध्य में बाण लगा था और उसका पूरा फल चरण में भीतर चुभा था। उस बाण का निकालने का कोई प्रयत्न उन्होंने नहीं किया था किन्तु पीड़ा, बेचैनी का कोई चिह्न वहाँ नहीं था। वे वैसे ही स्वस्थ, शान्त बैठे थे और उसी प्रकार गम्भीर वाणी बोल रहे थे जैसे द्वारिका में अपने सदन में उपदेश कर रहे हों। महर्षि मैत्रेय के सुनते हुए उन योगेश्वर ने उद्धव को भागवत के तत्त्वज्ञान का भक्ति का भी विस्तार से उपदेश किया। बिना किसी त्वरा के श्रीकृष्ण की वाणी से वह ज्ञानामृत की धारा अजस्त्र प्रवाहित होती रही। यह उपदेश लगभग मध्यान्हकाल तक चलता रहा। उद्धव को स्थान, समय, शरीर की कोई सुधि नहीं थी। वे उस नादामृत के श्रवण में एकचित्त हो रहे थे। अन्त में उपदेश समाप्त करके उन्हें जनार्दन ने फिर प्रेमपूर्वक बदरीनाथ जाने का आदेश दिया। महर्षि मैत्रेय को मस्तक झुकाकर केशव ने कहा- 'विदुर आपका दर्शन करेंगे। वे भागवताचार्य धर्मराज ही हैं। आप कृपा करके उन्हें इस तत्त्वज्ञान का उपदेश कर देना।' भगवान भक्तवत्सल, भक्तैक प्राण है। उन्हें इस लोक के त्याग के समय अन्तिम रूप में कोई स्मरण आया तो वे महाभाग विदुर जी थे। महर्षि मैत्रेय विभोर हो गये, यह श्रीकृष्ण की प्रीति विदुर पर देखकर और उन्हें उपदेश करने का वचन देकर उठ खड़े हुए। अब वहाँ रुकना उचित नहीं था। उद्धव ने श्रीद्वारिकाधीश की परिक्रमा की। उनके चरणों से प्रणिपात किया। उनका हृदय ज्ञान प्राप्त करके शान्त, निर्मल, आनन्दपूर्ण हो चुका था किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र का वियोग फिर भी व्याकुल किये दे रहा था। किसी प्रकार उद्धव बार-बार प्रणाम करके उन श्रीनिवास के सस्नेह आग्रह को स्वीकार करके वहाँ से विदा हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज