श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. शाप की परिणति
शाप का प्रभाव, माया से मूढ़ हुई बुद्धि, नशे की उत्तेजना, सब दिव्यास्त्रों का बिना हिचक प्रयोग करने लगे। इस युद्ध का यह परिणाम बहुत शीघ्र हुआ कि प्रायः सबके रथ टूट गये। सारथि और अश्व मारे गये। कवच कट गये। शिरस्त्राण गिर गये। धनुष कट गये और अक्षय तूणीर भी शर-रहित हो गये। भल्ल, त्रिशूल, तोमर, गद तलवार, शक्ति जो हाथ में आया उसी अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग खुलकर हुआ और शीघ्र ये सब शस्त्र भी समाप्त हो गये। किसने पहिले हाथ लगाया, यह कौन देखे वहाँ। जिसके भी शस्त्र समाप्त हुए उसी ने एरका घास समीप सागर तट से उखाड़ी और उसी की मुट्ठी से आघात करने लगा। वह एरका तो मानो वज्र बन गयी। उसका प्रहार सभी अस्त्र-शस्त्रों से प्रचण्ड सिद्ध होने लगा। उसके सम्मुख शस्त्र भी टूट गये तब दूसरों ने भी वही घास उखाड़ ली और सबके हाथों में वही शस्त्र बनकर आ गयी। ईश्वर का स्वरूप ही यह है कि वह सृष्टि करता है। अतिशय वात्सल्य से उसका पालन, संरक्षण करता है किन्तु प्रलय-काल आने पर स्वयं निर्मम होकर अपनी ही सृष्टि को मिटा दिया करता है। वह शिव है और प्रलयकर भी है। श्रीसंकर्षण तथा श्रीकृष्णचन्द्र ने यादवों को युद्ध करने से मना किया। उन्हें रोका किन्तु इसका विपरीत परिणाम हुआ। उन लोगों ने समझा कि ये दोनों हमारे प्रतिपक्षी का समर्थन कर रहे हैं और एक साथ सैकड़ों इन दोनों भाइयों को ही मार देने के लिए ही टूट पड़े। यह हल-मुशल अथवा चक्र को स्मरण करने का समय नहीं था। वे तो शत्रुविनाशक दिव्य अस्त्र है। दोनों भाइयों ने भी वही एरका की एक-एक मुट्ठी घास उखाड़ ली और उसे घुमाकर प्रहार करने लगे। यह अपनी सृष्टि का स्वयं संहार करना अविराम चलता रहा। रथ, अश्व और मानवों के छिन्न-भिन्न शवों से पटी वह धरित्री। धनुष, कवच, बाण, भल्ल आदि अस्त्र-शस्त्रों के चुकड़ों से वह सर्वत्र छादित हो गयी थी और रक्त की धारा से पृथ्वी, सरस्वती तथा समुद्र का जल लाल हो गया था। हुंकार, चीत्कार, क्रन्दन की ध्वनि से दिशाएँ व्याप्त थीं। श्रीकृष्ण-बलराम केवल दो बच रहे। शेष सब समाप्त हो गये। शमशान की शान्ति, रुदन-क्रन्दन, चीत्कार का कुछ नहीं। केवल कुचले कटे-फटे शव। आपाद मस्तक रक्त से लथपथ दोनों भाई। दोनों भी परस्पर समीप नहीं थे। वह युद्ध लाख-लाख यादव तरुणों में हुआ था। कई-कई मील की भूमि शवों की राशि से ढकी थी। अब अपने सम्मुख अपने ही द्वारा किये अपने कुल का यह संहार देखकर किसे दूसरे को देखना, पुकारना सूझता। दोनों ने एरका-मुष्टि फेंक दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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