श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. शाप की परिणति
सभी अपशकुनों को देखकर घबड़ाये थे। सबको शाप का पता था। सुनते ही यदु वृद्धों ने अनुमोदन कर दिया। सभी तरुण तुरन्त उठे। स्त्री, बालक, वृद्धों को तत्काल शङ्खोद्धार भेजने की व्यवस्था की गयी। महाराज उग्रसेन, शूरसेन जी, वसुदेव जी प्रभृति इस समाज को साथ लेकर जब चल पड़े तब शेष सब यादवों ने नौकाओं से समुद्र पार किया और रथों में बैठकर प्रभास पहुँचे। द्वारिका में कोई यादव नहीं रह गया। प्रभास में पहुँचकर सबने स्नान किया। उपवास किया, देवार्चन किया और ब्राह्मणों को भोजन कराके उन्हें भरपूर दान किया। यहाँ तक तो सब कुछ श्रीकृष्णचन्द्र की सम्मति से, उनको पूछकर किया गया, किन्तु इसके पश्चात सबने भोजन किया और डटकर महुए से बनी सुरा का पान किया। तीर्थ में है और तीर्थोपवास का पारण हविष्यान्न से करना चाहिए, यह किसी की बुद्धि में ही नहीं आया। दान-मान से संतुष्ट होकर ब्राह्मण विदा कर दिये गये थे और साथ में कोई वृद्ध आये नहीं थे। श्रीकृष्णचन्द्र अग्रज के साथ आज तटस्थ हो रहे थे। अक्रूर ही सबसे बड़ों में साथ थे और वे स्वयं युवकों का साथ दे रहे थे। जब कोई वृद्ध साथ न हों, तरुणों का समूह अनियन्त्रित हो जाता है। यही स्थिति यहाँ यादवों की हुई। पर्याप्त अधिक सुरापान के कारण उनमें किसी में भी कुछ सोचने की शक्ति नहीं रह गयी। वे वीर थे और अपने बल का गर्व भी था। नशे में यह गर्व उद्दीप्त हो गया था। साधारण बातचीत में ही परस्पर कलह प्रारम्भ हुई। एक दूसरे पर आक्षेप करने लगे और शीघ्र ही विवाद में शस्त्र उठ गये। वाद-विवाद ने युद्ध का रूप धारण कर लिया। सब अपने रथों पर जा बैठे और जैसे शत्रुओं से संग्राम करना हो वैसे घोर संग्राम करने लगे। जो परस्पर प्रीति करते थे वे मानो परस्पर परिचय भी भूल गये। प्रद्युम्न साम्ब से, अक्रूर भोज से, अनिरुद्ध सात्यकि से, सुभद्र संग्रामजित से, गद सुमित्र से, इस प्रकार सबने परस्पर ही प्रतिद्वन्द्वी बना लिये और एक-दूसरे को मारने पर उतर आये। दाशार्ह, भोज, वृष्णि, अन्धक, सात्वक, मध्व, अर्वुद, शूरसेन, कुक्कुर, कौन्त इन सब वंशों के यादव युद्ध में लग गये। यह भी नहीं कि एक वंश का दूसरे वंश के लोगों से कोई पहिला द्वेष हो और वह युद्ध का कारण बना हो। वहाँ तो पुत्र पिता से, भाई-भाई से, मामा भानजे से, चाचा भतीजे से, साले बहिनोई से, मित्र मित्र से तात्पर्य यह कि बिना किसी संबंध सौहार्द्र का ध्यान किये जिसके सामने जो पड़ा, वह उसी से भिड़ गया। मानो वह सम्मुख का व्यक्ति उसका सदा का शत्रु ही हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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