श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. उद्धव को उपदेश
‘तुम उचित अधिकारी हो। तुम तो मुझसे अभिन्न हो। तुम्हारी सेवा, भक्ति एवं सद्गुणों से मेरा हृदय सदा अभिभूत रहा है। जनार्दन ने कहा -‘तुम मुझसे तनिक भी न्यून नहीं हो। अतः इस ज्ञान को प्राप्त करके तुम इसकी परम्परा की रक्षा करो।’ ‘आज से सातवें दिन समुद्र इस द्वारिका नगरी को डूबा देगा। मैं जैसे ही धरा को छोडूँगा, यहाँ कलियुग का प्रभाव प्रारम्भ हो जायेगा। लोगों की अधर्म में रुचि हो जायगी। अतः तब तुम्हें इस प्रदेश में नहीं रहना चाहिए। समस्त स्वजन - बन्धुओं का स्नेह त्यागकर मन को मुझ में लगाकर सबके प्रति समदर्शी रहते हुए पृथ्वी में विचरण करो अथवा बद्रीनाथ चले जाओ। वहाँ भगवती अलकनन्दा के दर्शन मात्र से सम्पूर्ण कल्मष ध्वस्त हो जाते हैं। अग्नितीर्थ में स्नान करके उस नर-नारायणाश्रम में निवास करो, यदि एक स्थान पर रहना हो।’ ‘उद्धव ! यह तो जगत वाणी से वर्णन होता है, मन से सोचा जाता है या नैत्रादि से गृहित होता है यह नश्वर है, मायामय है, मनोमय है। अयुक्त पुरुष को नानात्व का भ्रम होता है और उस नानात्व में गुण-दोष बुद्धि होने से कर्म-अकर्म तथा विशेष कर्म की भेद-बुद्धि होती है। अतः इन्द्रिय समूह को नियन्त्रित करके युक्त चित्त से इस जगत को अपने भीतर ही देखो और अपने को मुझ अधीश्वर से अभिन्न देखो। ‘सर्वात्मभ्ज्ञाव को अपनाकर ब्रह्मात्यैक बोध से सम्पन्न तुम समस्त शरीर धारियों की आत्मा हो इस आत्मानुभव से संतुष्ट होने पर कोई विध्न तुम्हें बाधित नहीं करेगा।’ ‘ऐसा आत्मानुभव सम्पन्न महापुरुष गुण-दोष से अतीत होता है। वह दोष बुद्धि से कुछ त्यागता नहीं और गुण बुद्धि से कुछ करता नहीं। वह तो बालक के समान बाहर-भीतर सहज सरल होता है।’ ‘सर्वभूत सुहृद, शान्त, ज्ञान -विज्ञान के निश्चय से सम्पन्न, विश्व को परमात्मरूप देखता हुआ महापुरुष मृत्यु को पार कर जाता है।’ उद्धव को संक्षिप्त रूप में यह ज्ञानोपदेश किया श्रीकृष्णचन्द्र ने , किन्तु इतने से संतोष नहीं हुआ। उन्हें जब ज्ञान की परंपरा की रक्षा का आदेश दिया गया तो केवल शुद्ध सिद्धान्त ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। ज्ञान के जो साक्षात एवं परम्परा साधन हैं, जो आवश्यक धर्म हैं, जो विघ्न हैं, अन्तःकरण की शुद्धि के लिए जो आवश्यक हैं वह सब जानना चाहिए। बृहस्पति के साक्षात शिष्य उद्धव जन्म से भगवद-भक्त हैं, अतः उनके अधिकार के अनुरूप तो यह संक्षिप्त उपदेश ठीक है किन्तु उद्धव को जो आगे अनेक प्रकार के अधिकारी मिलेंगे, उनके लिए भी तो उचित साधन इसी परम्परा से प्राप्त होना चाहिए। अतः उद्धव ने जिज्ञासा की – |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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