श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
81. देवर्षि का वसुदेव जी को उपदेश
महाराज निमि ने अन्त में युगपुरुष उपासना को जानने की इच्छा की। नवम योगीश्वर कर भाजन जी ने कहा- 'सतयुग में श्रीहरि चतुर्भुज, शुक्लवर्ण, जटा, वल्कल, कृष्णमृगचर्मधारी, यज्ञोपवीती, रुद्राक्ष माला धर, दण्ड-कमण्डलु लिये ऋषि नाराण के रूप में नर के साथ पूजित होते हैं। उस समय के शान्त, निर्वैर, समदर्शी लोग, शम, दम तथा तपस्या द्वारा उनकी आराधना करते हैं। हंस, सुपर्ण, बैकुण्ठ, योगेश्वर, ईश्वर, परमात्मादि नाम से लोग स्मरण करते हैं। त्रेता में भगवान यज्ञपुरुष रक्तवर्ण, चतुर्भुज, तीन मेखला वाले, हिरण्यकेश, वेदात्मक, स्त्रुक स्त्रुवादिधारी रहते हैं। उस समय के मनुष्य वेदज्ञ, धर्मनिष्ठ, यज्ञों द्वारा उनका यजन करते हैं। वे भगवान को विष्णु, यज्ञ, पृश्निगर्भ, वृषाकपि, उरुक्रमादि नामों से स्मरण करते हैं। 'द्वापर में भगवान का स्वरूप श्यामवर्ण, चतुर्भुज, पीताम्बर परिधान, शंख, चक्र, गदा पद्मधारी, श्रीवत्स वक्ष रहता है। उस समय वैदिक एवं तन्त्रोक्त रीति से अनेक उपचारों द्वारा श्रीमूर्ति में लोग पूजा करते हैं। वे वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध इन चतुर्व्यहात्मक रूपों की अर्चा एवं उनके नामों का कीर्तन करते हैं। 'कलियुग में भगवान कृष्णवर्ण, उज्ज्वल कान्ति रहते हैं! उनके अंगोपांग एवं अस्त्र, पार्षदों की भी पूजा की जाती है। कलियुग में संकीर्तन ही प्रमुख साधन है।' करभाजन जी ने उपसंहार करते हुए कहा- 'जो सर्वात्मना श्रीहरि की शरण हो गया, वह देवता, मनुष्य, माता -पितादि तथा ऋषि किसी का ऋणी या किङ्कर नहीं रहा। वह समस्त कर्तव्यों से, कर्म बन्धन से छूट गया। जो दूसरे सब भावों को छोड़कर भजन करने में लगा है उससे यदि कुछ विकर्म भी बन जाय तो श्रीहरि उसके हृदय में स्थिर हैं ही। वे समस्त अशुभों का विनाश कर देते हैं।' इस प्रकार भागवत धर्म का उपदेश करके महाराज निमि के द्वारा सत्कृत होकर वे सिद्ध योगीश्वर गण वहाँ से चले गये। देवर्षि नारद ने वसुदेव जी से कहा- 'आप भी इन भागवतधर्मों पर स्थित होकर असंग एवं केवल भगवत्परायण हो जायें। आप पति-पत्नी तो धन्य हैं। आप दोनों के यश से सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है क्योंकि साक्षात श्रीहरि आपके पुत्र होकर अवतीर्ण हुए हैं।' 'इन श्रीकृष्ण का स्मरण शत्रुता से, भय से भी करने वाले परम पद को प्राप्त होते हैं, फिर जो प्रीति-पूर्वक इनका स्मरण करते हैं, इनका दर्शन करते हैं, इनसे बोलते हैं, ये जिनसे बोलते हैं, उन इन स्वजनों के सौभाग्य का वर्णन कोई कैसे कर सकता है। वे तो नित्य मुक्त हैं ही।' देवर्षि नारद का उपदेश सुनकर पुनः वसुदेव जी ने उनकी पूजा की और देवर्षि वहाँ से विदा हुए क्योंकि उन पर्यटनशील को कहीं भी देर तक रुकना तो रहता ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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