श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
81. देवर्षि का वसुदेव जी को उपदेश
ऐसे महाभागवत, इन मायाजयी महापुरुषों का अचिन्त्य प्रभाव सुनकर महाराज निमि ने पूछा कि- 'भगवान की माया का क्या स्वरूप है?' जिस माया से पार होना है, उसे भी तो ठीक समझ लेना आवश्यक है। इस प्रश्न का उत्तर दिया योगीश्वर अन्तरिक्ष ने- 'माया वस्तुतः अनादि और अनिर्वचनीय है। त्रैगुणमयी प्रकृति की साम्यावस्था काल की प्रेरणा से भंग होने पर प्रकृति से महत्तत्त्व, उन महान से अंहकार और अंहकार के सात्त्विक अंश से देवता, मन और राजसांश से बुद्धि, तन्मात्राएँ एवं तमासांश से आकाशादि पंचभूत व्यक्त होते हैं।' 'इन पंचभूतों से समस्त प्राणियों के शरीर बनते हैं। चेतन इनमें अप्रविष्ट होकर भी प्रविष्ट जैसा प्रतीत होता है। अपने द्वारा ही प्रकाशित गुणों को गुणों के द्वारा भोगता हुआ पुरुष इस सृष्टि को सत्य मानकर इसमें आसक्त हो जाता है। 'एक कर्म दूसरे कर्म का बीज-संस्कार उत्पन्न करता है और इस प्रकार कर्म से कर्म फल तथा नूतन कर्म की परंपरा के द्वारा जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहता है।' 'माया यही है कि स्वप्न के समान, मृग-मरीचिका के समान यह प्रपंच केवल प्रतीति मात्र है किन्तु इसे सत्य मान लिया गया है। जिस चेतन में कर्तृत्व है ही नहीं वह प्रकृति के गुणों से होने वाले कर्मों को अपना मान बैठा है और इस कर्तापन के अहंकार के कारण कर्म-संस्कार से लिप्त होकर कर्म-बन्धन को प्राप्त हो रहा है।' अन्तरिक्ष जी ने सृष्टि तथा प्रलय का क्रम वर्णन किया क्योंकि अनिर्वचनीय माया का वर्णन केवल दृश्य की उत्पत्ति-विनाश के वर्णन के रूप में ही संभव है। इसे सुन कर राजा ने पूछा- 'इस ईश्वरीय माया से स्थूलबुद्धि पुरुष सरलतापूर्वक कैसे पार हों? यह बहुत दुस्तरा है, अतः सरल उपाय इससे पार होने का बतलाने की कृपा करें।' योगीश्वर प्रबुद्ध बोले- 'सरल उपाय है कि मनुष्य में पहिले विवेक हो। वह देखे कि दुःख दूर करने तथा सुख-प्राप्ति के लिए जितने प्रयत्न मनुष्य गृहस्थ बनकर विषय-प्राप्ति के लिए करता है, उससे उसे केवल दुःख मिलता है। धन, पुत्र, पत्नी वैभवादि कोई सुख नहीं दे पाते क्योंकि वे स्वयं नश्वर है। 'इस विवेक के उदय होने पर वैराग्य होगा। जब संसार के भोगों से उनमें दोषदृष्टि होकर वैराग्य हो जाय तब अपने कल्याण-मार्ग जानने की इच्छा से गुरु की शरण लेनी चाहिए। गुरु ऐसा हो जो वेद-शास्त्र का विद्वान भी हो और तत्त्वानुभव संपन्न भी हो। दो में-से एक भी बात का उसमे अभाव हुआ तो शास्त्रज्ञ अनुभवहीन होने के कारण भूल कर सकता है ओर केवल तत्त्वज्ञ शास्त्रज्ञान न होने से अधिकारी का अधिकार नहीं समझ पावेगा। सबको अपने मार्ग पर ही चलाने का आग्रह करेगा।' 'गुरु की शरण लेकर निष्कपट भाव से उनकी सेवा करता हुआ उनकी आज्ञा का पालन करता हुआ उन्हें अपना आराध्य मानकर रहे और वहाँ भागवत धर्म की शिक्षा प्राप्त करे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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