श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. रुक्मिणी-वियोग
महर्षि का चातुर्मास्य पूर्ण हो चुका था। वे उसी समय द्वारिका से चले गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने महारानी को सचेत किया और स्नान से पूर्व केवल इतना सुनाकर आश्वस्त किया- 'महर्षि शपानुग्रह करके गये हैं।' महारानी रुक्मिणी के लिए अपने इन आराध्य से वियुक्त होकर रहने की कल्पना भी असह्य थी किन्तु अब उपाय कोई नहीं था। श्रीद्वारिकाधीश ने नगर से बाहर उनके लिए उत्तम भवन का निर्माण कराया। उस भवन को सब प्रकार सज्जित किया गया। महारानी के अपने इस सदन से भी अधिक सुख-सुविधादि की व्यवस्था वहाँ की गयी। श्रीद्वारिकाधीश ने आश्वासन दिया- 'तुम्हारे पुत्रों में-से प्रत्येक वहाँ प्रतिदिन तुम्हारी चरण-वन्दना करने जायेंगे ही। तुम्हारी पुत्र-वधुओं में-से कोई न कोई सदा तुम्हारे समीप रहा करेंगी। मैं केवल एक वर्ष वहाँ नहीं आऊँगा किन्तु तुम द्वारिका में ही तो हो। मेरा समाचार तुम्हें प्रतिदिन मिलता रहेगा। मैं स्वयं उद्धव को, सात्यकि को तुम्हारे समीप भेजता रहूँगा। वैसे भी तो मैं हस्तिनापुर या अन्यत्र जाता हूँ और लौटने में पर्याप्त विलम्ब होता है।' महारानी रुक्मिणी ने उस भवन को वहाँ जाने से पूर्व श्रीकृष्णचन्द्र के बहुत आग्रह करने पर भी नहीं देखा। वहाँ क्या-क्या सामग्री सजायी गयी, इस चर्चा में उन्होंने कोई रुचि नहीं ली। उन्होंने वहाँ जाते समय दास-दासियों में-से अधिकांश को नगर में ही छोड़ दिया। 'आप मुझे व्रत-तप करने की आज्ञा दे दो।' उस नगर में बाहर के भवन में जाने से पूर्व महारानी अपने स्वामी के चरणों पर गिरकर क्रन्दन कर रो उठीं- 'मैं आपसे वियुक्त होकर केवल आपकी कृपा-प्राप्ति के लिए तप ही कर सकती हूँ।' श्रीकृष्णचन्द्र ने महारानी को उठाया। उनके अश्रु पोंछे। उनको आश्वासन दिया- 'तुम जानती हो और सम्पूर्ण विश्व जानता है कि तुम्हारा स्थान मेरे हृदय में है। यह श्रीवत्स तुम्हारा निवास है मेरे हृदय पर। तुमको जैसे रहने में प्रसन्नता हो, उसमें मेरी अनुमति है।' सृष्टि का संपूर्ण वैभव, समस्त सुख-संपदा, सारा ऐश्वर्य जिनकी कृपा-कटाक्ष का विलास है। उन महालक्ष्मी श्रीकृष्णपट्ट-महिषी महारानी रुक्मिणी ने सब आभूषण त्याग दिये। सब सुख-भोग विदा कर दिये। भवन की सजावट तथा सामग्री हटवा दी। वे चटाई बिछाकर भूमि शयन करतीं तथा दिन में केवल एक बार किंचित गो दुग्ध लेती थीं। उनके केश जटा बन गये और शरीर तपस्या से कृश हो गया। उन बल्कल धारिणी को देखकर चन्द्र ज्योत्स्ना रेखा का ही स्मरण आ सकता था। पृथ्वी पर महारानी का अपने आराध्य से यह अन्तिम मिलन था, जब वे राजसदन से इस भवन में आकर तपस्विनी बन गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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