श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. अतिथि दुर्वासा
महर्षि दुर्वासा ने समय-असमय आकर, अत्यन्त दुर्लभ पदार्थों की माँग करके देख लिया कि इस प्रकार वे यहाँ महारानी को थका नहीं सकते हैं। कभी यह अवसर भी नहीं आया कि महारानी स्वयं सेवा में उपस्थित न हों और ऋषि का सत्कार किसी दास-दासी अथवा पुत्र या पुत्रवधू पर ही उन्होंने छोड़ा हो। 'आज मैं रथ-यात्रा करूँगा।' एक दिन दुर्वासा जी ने श्रीद्वारिकाधीश से कहा- 'तुम लोग रथ में मूक पशुओं को दौड़ाते रहते हो, तुम्हें भी तो पता लगना चाहिए कि रथ खींचने में पशु को कितना कष्ट होता है। तुम दम्पत्ति अश्वों के स्थान पर रथ में जुड़ो और मैं रथ पर बैठकर रथ चलाऊँगा।' श्रीकृष्णचन्द्र ने महारानी की ओर तनिक गम्भीर दृष्टि से देख लिया। इस दृष्टि का तात्पर्य था- 'जहाँ अस्वीकृति को अवकाश नहीं है। इस नवीन अनुभव का आनन्द लेने को प्रस्तुत हो जाओ।' रथ आ गया और उसमें श्रीकृष्ण तथा रुक्मिणी जी अश्व के स्थान पर जुड़ीं महर्षि दुर्वासा कशा लेकर रथ-रश्मि अपने हाथों में सम्हाले रथ पर बैठे। वे अकारण श्रीद्वारिकाधीश तथा महारानी के शरीर पर बराबर कशाघात करते थे। उन दोनों के अत्यन्त सुकुमार श्रीअङ्गों पर कशाघात के काले चिह्न उभड़ते जा रहे थे; किन्तु उन त्रिलोकी नाथ ने अथवा उनकी महारानी ने एक बार भी सीत्कार तक नहीं किया। दुर्वासा जी ने रथ को उस भवन के उद्यान में ही नहीं घुमाया। वे रथ को भवन के महाद्वार से नगर के राजपथ पर ले आये और उस पर भी सामान्य प्रजा एवं नागरिकों के मध्य वैसे ही चलाते ले गये। उनका ध्यान दूसरे किसी की ओर नहीं गया। उन्होंने देखा ही नहीं कि लोग किस प्रकार व्याकुल होकर रोते हुए पथ से हट जाते हैं। सबसे अधिक क्रोध प्रद्युम्न को; किन्तु पिता के सामने वे कोई धृष्टता कैसे करते। वे वहाँ से सीधे भगवान बलराम के समीप पहुँचे- 'आप भी इस दुर्वासा से डरते हैं? यह मेरी माता को रथ में अश्व के स्थान पर जोते और उन पर कशाघात करता रहे, उन्हें राज-पथ पर ऐसे अपमानित एवं पीड़ित करे, आप भी इसे शान्त सहन करते हैं?' कुछ भी अनर्थ हो सकता था। श्रीसंकर्षण यह सुनते ही उठ खड़े हुए थे किन्तु इससे पूर्व ही दुर्वासा जी रथ से कूद पड़े थे। उन्होंने श्रीकृष्ण को रथ से पृथक करके हृदय से लगा लिया था और बोल उठे थे- 'मधुसूदन! तुम धन्य हो। तुम सचमुच ब्रह्मण्यदेव हो। तुम दोनों की कीर्ति सृष्टि में शाश्वत रहेगी।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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