श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. विप्र-पुत्रानयन
सुनन्द, नन्द आदि श्रीहरि के पार्षद वहाँ अपने स्वामी की सेवा में खड़े थे। शंख, चक्र, गदादि आयुध साकार, चेतन मूर्ति में उपस्थित थे। पुष्टि, श्री, कीर्ति, जयादि देवियाँ उन परमेष्ठियों के परमपति की सेवा कर रही थीं। चतुर्भुज श्रीद्वारिकाधीश ने अपने ही इन अष्टभुज स्वरूप भूमापुरुष की वन्दना की। अर्जुन तो इनके दर्शन से आनन्दमग्न हो रहे थे। उन्होंने उस रत्नभूमि में पकड़ कर प्रणिपात किया। दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तभी उन अनन्तशायी की अमृत-ध्वनि सुनायी पड़ी- 'तुम दोनों को देखने की इच्छा से द्वारिका के उस ब्राह्मण के पुत्र को मैं ले आया। पृथ्वी पर धर्म-रक्षा के लिए हुआ तुम्हारा कार्य पूरा हो गया। धरा के भार-भूत अवशेष असुरों का संहार करके अब मेरे समीप आने की शीघ्रता करो। तुम दोनों तो पूर्णकाम हो। धर्म की रक्षा तथा स्थिति के लिए नर-नारायण ऋषिरूप धारण करके आकल्पान्त लोक संग्रहार्थ धरा पर तप कर ही रहे हों। इस रूप में वहाँ अधिक रहना आवश्यक नहीं है। अतः अपने धाम को अब लौटो।' अर्जुन आश्चर्य विमूढ़ हो रहे थे। उन परमपुरुष ने ब्राह्मण के दसों पुत्र दे दिये। वे सब परस्पर एक वर्ष की आयु का तारतम्य रखते थे और स्वस्थ थे। उनको लेकर दोनों अपने रथ पर लौटे और रथ पहिले के समान ही लौटा। 'पुरुष का जितना भी प्रयत्न है, वह केवल तुम्हारी अनुकम्पा ही है।' मार्ग में ही अर्जुन ने श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'व्यक्ति का अपने पौरुष का गर्व कितना खोखला, कितना तुच्छ है यह मैंने आज प्रत्यक्ष अनुभव कर लिया।' अर्जुन अब समझ गये थे कि उनकी विद्या की शक्ति भी कितनी असहाय थी दूसरे लोकपाल तो दूर भगवान ब्रह्मा भी क्यों इस संबंध में कुछ भी जानने में असमर्थ थे। देश, काल, और कर्म भी जिन भूमापुरुष में कल्पित ही हैं, उनके संकल्प में कोई भी कैसे बाधा दे सकता था और जहाँ उनका संकल्प सक्रिय हो, ग्रहों की गति अथवा कर्म के विधान का वहाँ क्या अर्थ था। ब्राह्मण को उसके पुत्र प्राप्त हुए। ऐसे प्राप्त हुए जैसे अन्यत्र पालन के लिए रखे गये हों। इतना अनुपम पालन एवं शिक्षण उनका त्रिभुवन में कहीं शक्य नहीं था। वे सब जन्म से भगवत्सान्निध्य प्राप्त सर्व वेद-वेदांग विशारद, माया मुक्त, वीतराग, परम भगवद्भक्त हो चुके थे। उन्हें प्राप्त करके वे ब्राह्मणोत्तम कृत-कृत्य हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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