श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. विप्र-पुत्रानयन
अर्जुन ने चिता प्रज्वलित की और उसमें प्रवेश करने बढ़े तो श्रीकृष्णचन्द्र ने सखा का हाथ पकड़ लिया- 'इतने में ही निराश हो गये? अपनी शक्ति को अल्प मत मानो। उसका अनादर मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मण के पुत्र को दिखला दूँगा।' नर की अपनी शक्ति, अपना गर्व जब समाप्त हो जाता है तब नारायण उसकी सहायता करने आगे आते हैं। नर की सच्ची शक्ति ही यह है कि वह नारायण का सखा है। अपनी इस शक्ति का वह अनादर क्यों करें? श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने रथ में अर्जुन को बैठाया और वह दिव्य रथ इस बार अर्जुन के सारथ्य में चला। दारुक को श्रीकृष्ण ने छोड़ दिया था। अर्जुन रथ-रश्मि पकड़े कहने मात्र के लिए सारथि थे। अश्व ऐसे उड़े जा रहे थे मानो अपने परिचित मार्ग पर ही जा रहे हों। जब-जब मार्ग में समुद्र आया, समुद्र के अधिदेवता राकार अंजलि बांधे सम्मुख मिले- 'मैं क्या सेवा करूँ?' 'रथ के लिए मार्ग दे दो।' किसी का भी उपहार इस बार स्वीकार नहीं हो रहा था। श्रीकृष्ण एक ही आदेश देते थे और जलराशि द्विधा विभक्त हो जाती थी। रथ अबाध चलता गया। यही अवस्था होती थी मार्ग में पर्वतों के आने पर। उनके अधिदेवता तो अंजलि बाँधे मिलते थे और आदेश पाकर मार्ग दे देते थे। उत्तर कुरु से दिव्य देश की यात्रा आरंभ हुई। जम्बू द्वीप छोड़कर क्षार समुद्र पार हुआ। और फिर द्वीप, द्वीप के सप्त-पर्वत- इस क्रम से सातों महासमुद्र, सातों महाद्वीप और प्रत्येक में सात-सात पर्वत पार करने पड़े। अन्त में लोकालोक पर्वत को पार करते ही घोर अन्धकार आ गया। ऐसा अन्धकार जैसे वह गाढ़ा होकर भित्ति बन गया हो। रथ के अश्व ठिठक कर रुक गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने चक्र को आगे चलने का आदेश किया। उस कोटि-सूर्य संकाश चक्र का तेज भी उस प्रगाढ़ अन्धकार में केवल एक सुरंग जैसा मार्ग ही बना पाता था और उसी मार्ग से अश्व बढ़ते जा रहे थे। अन्धकार समाप्त हुआ तो अर्जुन को जैसे श्वास लेने का अवकाश मिला। लेकिन शीघ्र इतना तीव्र प्रकाश प्राप्त हुआ कि अर्जुन को अपने दोनों नेत्र बन्द कर लेने पड़े। अब यहीं रथ छोड़ देना पड़ा। अर्जुन को रथ से उतारकर श्रीकृष्णचन्द्र ने उनका हाथ पकड़ा। अर्जुन को केवल यह लगा कि वे अतल गंभीर जल में प्रवेश कर रहे हैं। शत सहस्र चन्द्रिकोज्जवल सुखद शीतल प्रकाश प्राप्त हुआ जब पार्थ ने नेत्र खोले। उमड़ते उत्तुंग उर्मिमाली के गर्भ में सहस्रों मणि-स्तम्भों से मण्डित ज्योतिर्मय भवन में वे खड़े थे और सम्मुख सहस्र मणिमण्डित फण उठाये, कमलनाल श्वेत भगवान शेष शान्त स्थिर अवस्थित थे। उनके अतर्क्य विस्तीर्ण कुण्डलाकार भोग पर अनन्तशायी अष्टभुज, नवीन नीरद श्याम, पीताम्बर परिधान, श्रीवत्स वक्ष, कौस्तुभ कण्ठ, रत्नमुकुटी, रत्नाभरण भूषित भूमा पुरुष आधे लेटे हुए थे और मन्द-मन्द मुस्कुराते अपने विशाल लोचनों से मानो कृपा वर्षा करते इन्हीं की ओर देख रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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