श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. विप्र-पुत्रानयन
'धनंजय! मैं श्रीकृष्ण के सखा होने के कारण तुम्हारा सम्मान करता हूँ किन्तु तुम्हारी यह अशिष्टता उचित नहीं है।' धर्मराज ने अर्जुन को लगभग डाँटते हुए कहा- 'तुम जानते हो कि श्रीकृष्ण का स्मरण करने वालों के समीप भी मैं या मेरे दूत नहीं जाते। जब तक वे जनार्दन द्वारिका में हैं, मृत्यु उधर मुख नहीं कर सकती। मैं जाऊँ भी तो केवल बहिन से मिलने ही जा सकता हूँ।' 'आप मुझे क्षमा करें।' अर्जुन को अपनी अशिष्टता पर लज्जा आयी- 'आप मेरी सहायता करें। मैं उस हरण किये गये विप्र पुत्र को देखना चाहता हूँ।' धर्मराज ने चित्रगुप्त की ओर देखा। चित्रगुप्त ने अपना खाता उल्टा और सिर हिला दिया- 'हमारे यहाँ द्वारिका के किसी मनुष्य तो दूर पशु-पक्षी, कीट तक का भी कोई विवरण नहीं रखा जाता। जिनको कभी हमारे यहाँ आना ही नहीं उनके कर्म विवरण रखने का व्यर्थ काम हम नहीं करते।' 'आप इतनी सहायता कर सकते हैं कि वह कहाँ गया हो सकता है, यह बतला दें। अर्जुन ने प्रार्थना की। चित्रगुप्त ने फिर सिर हिला दिया- 'हम कोई अनुमान नहीं कर सकते। धरा पर से देह त्याग कर मनुष्य स्वर्ग, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक अर्थात ब्रह्मलोक जा सकता है। वह यदि क्रूर प्रकृति है तो अतल, वितल, सुतल, महातल, तलातल, रसातल या पाताल जा सकता है। वरुण, कुबेर के लोक भी उनका अनुचर होकर जा सकता है। यदि वह भक्त है तो अनुमान करना अशक्य है- वैसे बैकुण्ठ, कैलास, साकेत, गोलोक, गणेशलोक, सूर्यलोक, देवीलोक- उसके जो भी आराध्य हों उनके लोक जा सकता है। यदि उसे कैवल्य प्राप्त हो गया हो, उसकी सत्ता चिह्न शेष को ढूँढ़ा नहीं जा सकता।' यमराज ने चित्रगुप्त के इस वर्णन को और बढ़ा दिया- 'आप कहते हैं कि सशरीर उस बालक का हरण हुआ है। देवता, दैत्य, गन्धर्व, किन्नर आदि कोई आपके आयुधों का अतिक्रमण नहीं कर सकते किन्तु दिव्य महर्षिगण, दिव्यधामों के कोई चिन्मय अधीश्वर ऐसा करें तो पता लगाने का मेरे पास भी कोई उपाय नहीं है।' अर्जुन ने वहाँ से प्रस्थान किया। दिव्यधामों में वे जा नहीं सकते थे। स्वर्ग, आग्नेयीपुरी वरुणपुरी, वायुपुरी, चन्द्रलोक, सूर्यलोक, नीचे के सब रसातल, पातालादि और ऊपर के महर्लोक से ब्रह्मलोक तक उन्होंने देख डाले। कैलास भी हो आये। उन्होंने कहीं धृष्टता नहीं की किन्तु उनके विनम्र वचनों का भी कुछ प्रभाव नहीं पड़ा। अघोलोकों के अध्यक्ष और लोकपाल भी प्रेम से मिले किन्तु केवल यह कह सके कि 'ब्राह्मण का पुत्र हमारे यहाँ नहीं है।' कैलास पर भगवान शंकर समाधि में स्थित थे और अम्बा ने मौनव्रत ले रखा था। ब्रह्मलोक में भगवान ब्रह्मा ने कह दिया- 'विजय! वह शिशु मेरी सृष्टि में नहीं है, मैं इतना ही कह सकता हूँ।' जब वह ब्रह्मा जी की सृष्टि में ही नहीं है तो उसे ढूँढ़ने का प्रयत्न व्यर्थ है। अर्जुन जहाँ तक जा सकते थे उसकी यही सीमा थी। वे निराश होकर द्वारिका लौटे और काष्ठ चयन करके गोमती-सागर संगम पर समुद्र किनारे उन्होंने अपनी चित्ता सजायी। अग्नि प्रवेश करके देह त्याग देना ही अब उनके लिए प्रतिज्ञा पूर्ति में रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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