श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. विप्र-पुत्रानयन
'आपका मंगल हो। शीघ्र चलें, मेरी पत्नी को प्रसव की पीड़ा प्रारम्भ हो गयी है।' ब्राह्मण एक वर्ष के लगभग बीतने पर एक दिन अत्यन्त आतुर दौड़ता आया। उसने सीधे अर्जुन से आकर पुकार की। अर्जुन ने अपना धनुष उठाया। अक्षय त्रोण कसे और ब्राह्मण के साथ उसके घर पहुँचे। उन्होंने जल लेकर आचमन किया और भगवान शंकर का स्मरण करके धनुष की प्रत्यंचा चढ़ायी। ब्राह्मण को उन्होंने उसके घर में भीतर कर दिया। अब उसके धनुष से वाणों की वर्षा प्रारंभ हो गयी। ऊपर आकाश में तथा भवन के चारों ओर इस प्रकार मन्त्रपूत बाण उन्होंने चलाये आड़े, तिरछे, सीधे कि उन वाणों के परस्पर ठेस जाने से ब्राह्मण का घर वाणों के द्वारा बने पिंजड़े में छिप गया। उसमें कहीं से वायु के प्रवेश के लिए भी स्थान नहीं रहा। उन वाणों को उनकी मन्त्र शक्ति को वेध करके भीतर अदृश्य रहकर भी किसी देवता, दैत्य या भूत-प्रेत का प्रवेश असम्भव हो गया। अर्जुन इतना करके धनुष चढ़ाये हाथ में बाण लिये किसी भी अज्ञात शक्ति से जो उनके वाणों का आवरण भंग करने का प्रयत्न करे, युद्ध करने को प्रस्तुत खड़े थे। सहसा भीतर से नवजात शिशु की रुदन-ध्वनि कान में पड़ी। ब्राह्मणी को बालक हुआ। वह कई बार रोया। अचानक भीतर से क्रन्दन सुनायी पड़ा- 'ले गया हाय! मेरे बच्चे को हरण कर ले गया।' 'अर्जुन चौंके। उन्हें भी आकाश में-से एक बार बालक के रोते हुए ऊहँ की ध्वनि सुनायी पड़ी किन्तु शिशु तथा अपहरणकर्ता कोई दीख नहीं पड़ा। अब उन्होंने अपने द्वारा बनाये शर-पंजर को भग्न किया। ब्राह्मण रोता हुआ निकला- 'हाय! इस बार तो मैं अपने बच्चे का मुख भी नहीं देख सका। इस बार उसको काल सशरीर हरण कर ले गया।' श्रीकृष्णचन्द्र आ गये थे वहाँ। उनके सम्मुख शिर झुकाएँ खड़े अर्जुन को धिक्कारता हुआ ब्राह्मण कह रहा था- 'मैं भी कैसा मूर्ख हूँ कि मैंने इस नपुंसक की बकवाद पर विश्वास कर लिया था। इस मिथ्या बकवादी अर्जुन को, इसके धनुष को और इसके पराक्रम को धिक्कार है। यह अपनी मूर्खतावश ही दैव के द्वारा हरण किये जा रहे मेरे पुत्र को बचाने की डींग हाँक रहा था। यह दुर्मति इतना भी नहीं जानता कि जिसे अनिरुद्ध, प्रद्युम्न? संकर्षण अथवा स्वयं श्रीकृष्ण नहीं बचा सकते उसे बचाने में दूसरा कोई कैसे समर्थ हो सकता है।' ब्राह्मण का आक्रोश उचित था। उससे कुछ भी कहा नहीं जाता था। अर्जुन ने अब देवताओं से प्राप्त विद्या का आश्रय लिया और धनुष चढ़ाये संयमिनीपुरी पहुँचे। पहुँचते ही उन्होंने यमराज को ललकारा- 'अब आप अथवा आपके दूत धरा से प्राणी का सशरीर हरण करने लगे हैं? मैं द्वारिका से लाये ब्राह्मण के सद्योजात कुमार को लेने आया हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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