श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
76. उत्तङ्क पर अनुग्रह
उत्तङ्क के नेत्रों में अश्रु आ गये। वे श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख भूमि पर मस्तक रखकर गिरे- 'क्षमा! स्वामी क्षमा करें मुझ अज्ञानी के अपराध को।' श्रीद्वारिकाधीश ने उन्हें उठाया अपनी चारों भुजाओं से- 'आपके लिए कोई भय नहीं हैं। मैं प्रसन्न हूँ। मुझसे इच्छानुसार वरदान माँग लें।' 'आपके श्रीचरणों में मेरी प्रीति सदा सुस्थिर रहें।' महर्षि ने माँगा। श्रीकृष्णचन्द्र ने कह दिया- 'मैं इसकी व्यवस्था करूँगा।' द्वारिका पहुँचकर उन द्वारिकाधीश ने देवराज इन्द्र का आवाहन किया और उनसे उत्तङ्क को अमृत पिला देने के लिए कहा। इन्द्र को यह अच्छा नहीं लगा किन्तु पारिजात के प्रसंग में श्रीकृष्ण की माँग को अस्वीकार करके देख चुके थे। अब भय लगा कि अस्वीकार करें तो कहीं अमृत कलश भी न छिन जाय। उन्होंने कहा- 'मुझे अपने ढंग से अमृत देने की स्वतंत्रता दो। यदि उत्तङ्क उस ढंग से स्वीकार कर लेंगे तो उन्हें अमृत प्राप्त हो जायगा।' श्रीकृष्णचन्द्र समझ तो गये थे कि देवराज सुधा देना नहीं चाहते किन्तु उन्होंने इन्द्र को स्वीकृति दी। इन्द्र ने अतार्कित युक्ति अपनायी। वे चाण्डाल का वेश बनाकर उत्तङ्क के सम्मुख दिगम्बर प्रकट हुए। कज्जल कृष्ण वर्ण, रूक्ष केश, लाल नेत्र, गले में हड्डियों की माला पहिने वह नग्न चाण्डाल मूत्रोत्सर्ग करता हुआ उत्तङ्क से बोला- 'इसे पान कर!' 'नीच! दुष्ट!!' उत्तङ्क क्रोध से उत्तेजित हुए- 'तू इतना साहस करता है?' इन्द्र तो यही चाहते थे। वे इतना कहकर अदृश्य हो गये- 'तुम्हारी इच्छा? तुम नहीं पीते तो मैं जाता हूँ।' चाण्डाल वहीं अदृश्य हो गया किन्तु उसके व्यवहार से उत्तङ्क को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने जीवन में एक ही बार तो याचना की और उसका परिणाम यह अपमान। श्रीकृष्ण भी उनसे ऐसा व्यवहार करते हैं? महर्षि उत्तङ्क दुःख से अत्यन्त खिन्न बैठ गये। सहसा श्रीकृष्णचन्द्र का रथ आकर रुका उनके सम्मुख और उन अच्चुत ने प्रणिपात किया। उत्तङ्क ने उनके कुछ पूछने से पहिले ही झल्लाकर कहा- 'एक तपस्वी प्यासे ब्राह्मण को जल माँगने पर चाण्डाल का मूत्र पीने को तुम देते हो?' 'चाण्डाल? श्रीकृष्णचन्द्र चौंके- 'तो इन्द्र आपके समीप चाण्डाल बनकर आये थे?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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