श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
76. उत्तङ्क पर अनुग्रह
'श्रीकृष्ण! पुरुषोत्तम!! उन तापस ने झुककर दोनों हाथों से उठाकर हृदय से लगा लिया कृष्णचन्द्र को। धूलि-धूसरति वपु श्रीद्वारिकाधीश उस कङ्कालप्राय तपस्वी से लिपटे अद्भुत शोभा पा रहे थे और तपस्वी के सूखे शरीर से स्वेद की धारा चल रही थी। उसके नेत्र से अश्रु झर रहे थे। उसका रोम-रोम पुलकित था। साथ ही आनन्दातिरेक से उसकी काया आश्चर्यजनक रूप से परिपुष्ट होती जा रही थी। उकसी अस्थियाँ, स्नायु जाल छिपते जा रहे थे। अच्युत के इस अमृत-संचारी स्पर्श के कुछ क्षणों ने उसके युगों के तप से शुष्क शरीर को परिपुष्ट बना दिया। कुछ समय लगा महर्षि को स्वस्थ, शान्त होने में। श्रीकृष्णचन्द्र के साथ जब वे रेत पर ही बैठ गये तो अर्जुन की ओर देखकर पूछा- 'ये महानुभाव?' अर्जुन ने भी गोत्र-नाम लेकर प्रणाम किया था किन्तु उस समय तो महर्षि की वृत्ति श्रीकृष्ण में तन्मय हो रही थी। अतः फिर पार्थ ने भूमि में मस्तक रखा- 'कुरु वंशीय पाण्डु पुत्र अर्जुन श्री चरणों में मस्तक रखता है।' 'कौरव पांडवों में सन्धि हो गयी? युद्ध से उत्पन्न महाविनाश की सम्भावना समाप्त हो गयी?' महर्षि ने श्रीकृष्णचन्द्र से पूछा। उन दयालु के लिए महाविनाश की सम्भावना ही बहुत कष्टकर थी। 'युद्ध समाप्त हो गया।' 'महाविनाश हो गया? तुम सर्वसमर्थ होकर भी उसके द्रष्टा बने रहे? तुमने उसे रोका नहीं?' महर्षि आश्चर्य से श्रीकृष्णचन्द्र को घूरने लगे। उनके चित्त में इस समाचार ने अकल्पनीय पीड़ा उत्पन्न की। पता नहीं कितने प्राणियों का संहार हुआ। 'मैंने बहुत प्रयत्न किया किन्तु सफल नहीं हो सका महाविनाश को टालने में।' श्रीकृष्ण ने सिर झुका लिया। वहाँ जल तो था नहीं। महर्षि ने जल के स्थान पर मुट्ठी भर रेत हाथ में उठायी शाप देने के लिए। अब श्रीकृष्ण का श्रीमुख बहुत गंभीर हो गया। वे अपने मेघ-गर्जन के स्वर में बोले- 'आप व्यर्थ अपने तप का नाश कर लेंगे। मुझे किसी का शाप, किसी का तपः साधना शक्ति अभिभूत कर लेगी यह संभव नहीं है। मैं नहीं चाहता कि आपकी दीर्घकालीन तपस्या नष्ट हो जाय।' महर्षि उत्तङ्क की भौंहे सीधी हो गयीं। उनके नेत्रों की अरुणिमा लुप्त हो गयी। उनका हाथ शिथिल पड़ गया और मुट्ठी से रेत नीचे बिखरने लगीं। उनके शरीर में स्वेद आ गया। 'सचमुच वे आवेश में क्या करने जा रहे थे? इन सर्व-शक्तिमान सर्वेश्वर के सम्मुख कितनी तुच्छ है उनकी शक्ति! ये करुणा वरुणालय! इनके संकल्प करते ही संपूर्ण तपस्या नष्ट हो जायगी और ऐसी अल्प शक्ति- 'तपःशक्ति का इतना गर्व। इतना प्रदर्शन इनके सम्मुख।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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