श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. वाणासुर की पराजय
अब भगवान आशुतोष कुमार कार्तिक को लिये आये और उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र की स्तुति करके कहा- 'आप सर्वेश्वर, सर्व समर्थ हो किन्तु मैं भी आपका ही हूँ। इस स्कन्ध के समान ही यह वाणासुर भी मेरा पुत्र है। मैंने इसे अभय दिया है। आपको इस पर अनुग्रह करना चाहिए। भगवान शंकर ने मूर्च्छित वाणासुर को उठाकर श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख डाल दिया। श्रीकृष्णचन्द्र ने भगवान शंकर को प्रणाम किया और अनिरुद्ध की खोज में बाण के नगर में प्रविष्ट हुए। वाणासुर की मूर्छा दूर होते ही नन्दीश्वर ने उसे उठाया और भगवान शंकर के सम्मुख ले जाकर खड़ा कर दिया। वह रक्त में लथपथ उन महेश्वर के सम्मुख नृत्य करने लगा। इस अवस्था में भी उसे नृत्य करते देखकर वे धूर्जटि सुप्रसन्न बोले- 'वत्स! वरदान माँगो।' वाणासुर- 'मैं अजर-अमर हो जाऊँ।' शिव- 'यह वरदान तो तुम्हें श्रीकृष्ण ही दे चुके हैं, मुझसे कुछ और माँगो।' वाण- 'अपने सम्मुख नृत्य करने वालों पर आप संतुष्ट हो जाया करें।' शिव- 'पुत्र! तेरे मन में इस समय भी लोक-मंगल-कामना है, अतः मैं उसे स्वीकार करता हूँ। तेरे शरीर पर हुए चक्र के घाव अब दूर हो जायँ। अब तू मेरा नित्य पार्षद हुआ। अब से तू महाकाल नामक प्रमुख प्रमथगण हुआ।' देवर्षि नारद के द्वारा मार्ग-दर्शन कराया गया था। श्रीकृष्णचन्द्र गरुड़ के साथ अनिरुद्ध के समीप कन्यातःपुर में पहुँच चुके थे। गरुड़ को देखते ही नाग-पाश के नाग भाग गये। अनिरुद्ध ने पिंजडे़ से निकलकर चरण-वन्दना की। उषा ने भी आकर मस्तक झुकाया। भगवान शंकर वाणासुर को लेकर नगर में आये। बाण ने श्रीकृष्णचन्द्र का स्वागत किया। अनिरुद्ध-उषा को दहेज में उसने एक अक्षौहिणी सेना प्रदान की, धन रत्नादि के अतिरिक्त। वाणासुर को अब शिवगण होकर कैलास पर रहना था। उसका वह राज्य श्रीकृष्णचन्द्र ने कुम्भाण्ड को दे दिया। कुम्भाण्ड ने अपनी पुत्री चित्रलेखा का विवाह साम्ब से कर दिया। भगवान शिव बाण को लेकर कैलास चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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