श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. शिव-संग्राम
श्रीकृष्णचन्द्र ने धनुष रख दिया था और शंख अधरों से लगा लिया था। वे सम्मुख न देखकर अपने दल की ओर देखकर समस्त विजयी यादव-वाहिनी को उत्साहित करते हुए शंखनाद कर रहे थे। भगवान पुरारि तन्द्राग्रस्त हो गये। वाणासुर नगर में भाग गया और उसकी रक्षा के लिए माता कोटरा नग्ना, मुक्त शिरोरुहा दौड़ती युद्धस्थल में आ खड़ी हुई, इससे माहेश्वर ज्वर क्रोध से उन्मत्त होकर दौड़ा। अन्ततः वह भी इन जगदम्बा का ही पुत्र है। इनकी इस व्याकुलता में वह शान्त कैसे रह सकता है। वह आगे आया तो देवी कोटरा दुर्ग में लौट गयीं। तीन मस्तक, तीन चरण, षड्भुज, नौनेत्र वाला माहेश्वर ज्वर, वह उर्ध्वरोमा त्रिभुवन भंयकर मुट्ठी भर-भरकर भस्म फेंकता पूरे वेग से दौड़ता आया। जिसके शरीर पर उसके द्वारा फेंकी भस्म का एक कण भी गिरा उसके शरीर में असह्य दाह उठने लगी। वह मूर्च्छित होकर गिरा। यादव-वाहिनी में हा-हाकर मच गया। सब चीत्कार करने लगे। सब पुकारने लगे- स्वामी! रक्षा करो।' श्रीकृष्णचन्द्र हँसे। उन्होंने संकेत किया और सहसा वैसा ही त्रिशिर, त्रिपाद, षड्भुज, नौ नेत्र दूसरा पुरुष प्रकट हुआ। यह अत्यन्त स्थूलकाय वैष्णव शीतज्वर था। इसके निःश्वास से हिम की वर्षा हो रही थी। इसके प्रकट होते ही सैनिक स्वस्थ हो गये। माहेश्वर ज्वर को इसने पटक दिया और उसके ऊपर चढ़ बैठा। माहेश्वर- ज्वर विषमज्वर की ज्वाला शान्त हो गयी। वह चीत्कार करने लगा- 'जनार्दन! भक्तवत्सल!! शरणागतत्राता!!! यह आपका शीतज्वर मुझे मार ही देना चाहता है। मुझे बचाइये! मेरी रक्षा कीजिये। मेरा अस्तित्व भी आपकी सृष्टि का ही अंश है, आवश्यक अङ्ग है स्वामी। मुझे शरण दीजिये।' श्रीकृष्णचन्द्र ने नेत्र से संकेत किया और शीत ज्वर उस माहेश्वर ज्वर के वक्ष से उठकर अन्तर्हित हो गया। माहेश्वर ज्वर उठा। स्वयं उसे दीर्घश्वास चल रहा था, भुवन को कम्पित करने वाले उसका शरीर भय से काँप रहा था। दोनों हाथ जोड़े वह बोलने में असमर्थ हो रहा था। वह अब भी इधर-उधर देख रहा था कि वह मोटा ज्वर कहीं फिर उसे पटक न दे। 'डरो मत!' श्रीकृष्णचन्द्र ने अभय दिया- 'अब तुम्हें मेरे ज्वर से भय नहीं है किन्तु अब जो इस प्रसंग को स्मरण करें, उनके यहाँ से तुम चले जाया करो।' बेचारा ज्वर वहाँ से तत्काल भागकर अदृश्य हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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