श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. शिव-संग्राम
सृष्टि में अपने ढंग का यह प्रथम संग्राम था। शंकर और श्रीकृष्ण दोनों सपरिवार युद्ध रत। दोनों अचित्य प्रभाव। दोनों ओर से अमोघ महिमा वाले दिव्यास्त्रों की झड़ी लगी रही और दोनों मुस्कुराते रहे। दोनों में से किसी की भौहों पर बल नहीं पड़ा था, न मुख पर रोष का आवेश झलका था। दोनों में से किसी के श्रीविग्रह पर किंचित भी आघात नहीं। जैसे दो मित्र हँसते हुए परस्पर पुष्प फेंकते रहे हों एक-दूसरे पर और शंकर जी के पाशुपत उठाने पर श्रीकृष्ण वैसे ही हँसते रहे थे तथा उनको निद्रामग्न करके भी ऐसे ही हँस रहे थे जैसे कि एक मित्र को खेल में छकाकर हँस रहे हों। युद्ध में दूसरों की स्थिति ऐसी नहीं थी। प्रद्युम्न ने देव सेनापति के शरीर को अपने शरों से रक्त का निर्झर बना दिया और वे मयूरवाहन विवश होकर युद्धभूमि से भाग गये। श्रीसंकर्षण के मुशल की मार खाकर वाणासुर के दोनों मंत्री कुम्भाण्ड और कूपकर्ण मूर्च्छित पड़े थे। बलराम जी का सिंहमुख हल तथा मुशल और प्रद्युम्न के बाण अब शत्रु-सेना का संहार कर ही रहे थे, श्रीकृष्णचन्द्र का शारंग धनुष भी मृत्यु-वर्षा करने लगा। वाणासुर की सेना का अधिकांश समाप्त हो गया। बचे सैनिक भागकर नगर में जा छिपे। वाणासुर ने अपने प्रत्येक धनुष पर दो-दो बाण सन्धान किये किन्तु उसका रोष तथा उद्योग व्यर्थ था। श्रीकृष्णचन्द्रइस समय क्रीड़ा की मनोवृत्ति में थे। भगवान शंकर के साथ क्रीड़ा का वेग अभी शांत नहीं हुआ था। उसी प्रवाह में उन्होंने वाणासुर के सब बाण काट फेंके, उसके सब धनुष काट दिये और उसके रथ के अश्व तथा सारथि को भी मार दिया। शस्त्रहीन वाणसुर रथ से कूदकर अपने नगर के ओर भागा। श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर अधरों से शंख लगाया और पांचजन्य विजय-घोष करता गूँजने लगा। भगवती उमा ने वाणासुर को पुत्र स्वीकार किया था। वे नन्दात्मजा महामाया कोटरा नाम से बाण के वात्सल्यवश शोणितपुर में ही रहती थीं। अब उनका यह सहस्रबाहु पुत्र संकट में पड़ा और शस्त्रहीन भागा तो माता का वात्सल्य व्याकुल हो उठा। वे मुक्त के शानग्ना केवल अपने सुदीर्घ केशों को आगे करके अंग पर केशावरण डाले दौड़ी आयीं युद्धभूमि में पुत्र की रक्षा करने और वाणासुर को पीछे करके श्रीकृष्ण के सम्मुख खड़ी हो गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज