श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. शिव-संग्राम
अग्निगणों के पराजित होकर नगर में चले जाने पर भगवान शंकर ने वाणासुर को सम्मति दी- 'सर्वेश्वरेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र ससैन्य आ गये हैं। अनिरुद्ध उनके पौत्र हैं। उन्हें पुत्री देकर श्रीकृष्ण का स्वागत करने में तुम्हारा हित है।' 'श्रीकृष्ण सर्वेश्वर हैं?' यादव वाहिनी ने नगर को चारों ओर से घेरकर आक्रमण प्रारंभ कर दिया था। वे वाह्योपवन, पुष्पोद्यान को रौंदते नगर के प्राकार और गोपुरों को ध्वस्त करने में लग गये थे। यह देखकर वाणासुर को अत्यधिक क्रोध आया। उसके समीप भी बारह अक्षौहिणी सेना थी। अपनी समस्त सेना के साथ वह नगर से बाहर निकला। जिसमें सिंह जुते थे ऐसे रथ पर बैठे भगवान शंकर उसकी सहायता के लिए अपने पुत्र स्वामी कार्तिक तथा गणों के साथ युद्धभूमि में उतरे। दोनों ओर सेना की संख्या समान और महारथी भी प्रायः समान हो गये थे अतः एक-एक का अपने समान से यह अद्भुत संग्राम प्रारम्भ हो गया। भगवान शंकर का श्रीकृष्ण से, वाणासुर का सात्यकि से, सेनापति स्कन्द का प्रद्युम्न से, वाणासुर के मंत्री द्वय कुम्भाण्ड कुपकर्ण का श्रीबलराम से, बाण के पुत्र का साम्ब से युद्ध चलने लगा। इतना अद्भुत युद्ध कि गगन में इन्द्रादि देवता, ऋषिगण ही नहीं। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी तक वाहनों, विमानों में बैठकर देखने आ गये। सब चकित, भयभीत थे कि 'इस युद्ध में क्या होगा?' दोनों ओर अप्रमेय बल-पराक्रम, अजेय योद्धा और समस्त दिव्यास्त्र ऐसे में किसी क्षण कोई भी महाप्रलय उपस्थित कर देने में समर्थ था। देवता, जनः, तप आदि लोकों के ऋषिगण तथा ब्रह्मा जी भी केवल स्तुति कर सकते थे किसी के आवेश में आने पर और वे इसके लिए प्रस्तुत, सावधान थे। भगवान शंकर के भूत, प्रमथ, यक्ष, पिशाच, डाकिनी, यातुधान[1] बेताल, विनायक, प्रेत, मातृकाएँ, कुष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस प्रभृत अनियन्त्रित और उपद्रवी थे। श्रीकृष्णचन्द्र ने धनुष चढ़ाते ही पहिले इस सम्पूर्ण वर्ग को इतने बाण मारे कि ये सब भाग खड़े हुए। ये श्रीकृष्ण के नाम से भयभीत होकर भागने वाले उनके सम्मुख आ भी इसलिए सके थे कि उनके स्वामी भगवान भूतनाथ साथ थे। अपने सब गण भगा दिये गये, यह देखकर भगवान पिनाकपाणि महेश्वर ने दिव्यास्त्रों की झड़ी लगा दी किन्तु श्रीकृष्ण उनमें-से प्रत्येक को निवारण करते चले गये। आग्नेयास्त्र को पार्जन्य ने, वायव्यकों पर्वतास्त्र ने शान्त किया और ब्रह्मास्त्र का उत्तर ब्रह्मास्त्र से देकर श्रीकृष्ण ने दोनों ओर से प्रयुक्त ब्रह्मास्त्रों का प्रत्याकर्षण कर लिया। अब भगवान प्रलयंकर ने अपना अमोघ पाशुपतास्त्र उठाया। सृष्टिकर्ता, सुर तथा ऋषिगण काँप उठे। वे स्तुति करें, पुकारें इसके पूर्व ही श्रीकृष्णचन्द्र के शारंग धनुष से जृम्भणास्त्र छूट गया। पाशुपत का प्रयोग करने से पूर्व ही भगवान पशुपति जृम्भणास्त्र के प्रभाव से निद्रित हो गये। वे जम्हाइयाँ लेते सो गये रथ में। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राक्षस
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