श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. स्यमन्तक मणि
देवता के पावन प्रतीक को किसी को- दूसरे को देने की चर्चा श्रीकृष्ण क्यों करेंगे; किन्तु मणि अब भगवान सूर्य का प्रतीक नहीं हो रही थी। वह सत्राजित के लिये स्वर्ण पाने का माध्यम- लोभ की पोषिका हो गयी थी। सत्राजित को मणि के दर्शन, पूजन से सूर्यनारायण का स्मरण नहीं होता था अब। अब उनका ध्यान स्वर्ण पर रहने लगा था। अब स्वर्ण-दान करके मिलने वाला यश- लोकेषणा- महत्त्वपूर्ण हो गयी थी। श्रीकृष्ण का स्वभाव बन्धन देना नहीं है, बन्धन काटना है। सूर्य ने मणि देकर पिण्ड छुड़ा लिया। मोह-लोभ, यशेच्छा दे दी है और श्रीकृष्ण चाहते थे कि सत्राजित मणि त्यागकर इन दुर्बलताओं से ऊपर उठ जायें। वे फिर सच्चे आराधक हो जायें। मणि सत्राजित के लिये आराध्य का प्रतीक नहीं रह गयी थी, यह बात उस दिन स्पष्ट हो गयी जब उनके छोटे भाई प्रसेन ने पूज्यपीठ पर से उठकर मणि को कण्ठ में बाँध लिया। सत्राजित को अपना छोटा भाई बहुत प्रिय था। बहुत स्नेह था भाई पर। प्रसेन ने कहा- 'भैया! मैं इसे पहिनकर आखेट करने जा रहा हूँ।' सत्राजित को लगा कि प्रसेन लोगों को दिखलाना चाहता हूँ कि उसके पास इतना अलौकिक कण्ठाभरण है। सत्राजित भी तो स्वर्णदान करके प्रसिद्धि-प्रिय हो गये थे। भाई की अभिलाषा उन्हें अनुचित नहीं लगी। छोटे भाई का मन क्यों तोड़ा जाय। केवल कह दिया- 'इसे बहुत सावधानी से रखना और सायंकाल तक आकर पूजा के लिये रख देना।' मणि से रात्रि में ही स्वर्णराशि प्रकट होती है, अतः दिन में वह आभरण बनी रहे, इसमें कोई हानि सत्राजित को नहीं दीखी। यह बात ही मन में नहीं आयी कि मणि आराध्य की मूर्ति बन गयी प्रतिष्ठा के पश्चात। अब उसे आभरण नहीं बनाया जाना चाहिये। आखेट में- हिंसा कर्म के समय मणि कण्ठ में बंधी रहे, उसे बाँधकर आखेट में मारे पशु उठाये जायें- छुए जायँ, यह अनुचित है, ऐसी कोई बात ध्यान में नहीं आयी। रत्नों के गुण-दोष-प्रभाव जानने वाले जौहरी और ज्योतिषी जानते हैं कि सब रत्न सबके लिये शुभ नहीं होते। जो रत्न जितना प्रभावशाली होता है, उतना ही शुभ या अशुभ होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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