श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. श्रीबलराम की तीर्थयात्रा
अनेक तीर्थ थे, जहाँ रथ नहीं जा सकता था। जहाँ तक रथ जा सकें, रथ से जाया जाय और उसके पश्चात पैदल यात्रा की जाय। रथ आगे उपयुक्त स्थान पर मिले यही किया जा सकता था। श्रीबलराम जी के साथ अनेक विद्वान ब्राह्मण तथा कुछ ऋषि भी तीर्थयात्रा में सम्मिलित हो गये थे। कुछ सेवक भी साथ थे और अन्यों को भी जो यात्रा करना चाहें, साथ चलने की सुविधा थी। उस समय देश का बहुत अधिक भाग दुर्गम वनों से पूर्ण था। एकाकी तीर्थयात्रा संभव नहीं थीं। कोई समर्थ पुरुष यात्रा में निकलते थे तो दूसरों को भी उनके साथ तथा सहायता से तीर्थयात्रा का अवसर मिल जाया करता था। भगवान संकर्षण ने ऐसे मिलने वाले तीर्थयात्री को सभी सुविधाएँ प्रदान करने की व्यवस्था कर ली थी। प्रभास पहिला तीर्थ था। वहाँ स्नान-दान पूजन करके सरस्वती के तट का मार्ग अपनाया और पृथूदक, विन्दुसर[1] त्रितकूप, विशालापुरी, ब्रह्मतीर्थ, प्राची सरस्वती, नैमिषारण्य यहाँ तक पहुँचने में कोई सीधा मार्ग नहीं था। गंगा तट और यमुना तट के भी बहुत से तीर्थों की यात्रा करते हुए नैमिष क्षेत्र पहुँचे थे। नैमिषारण्य में महर्षि शौनक की प्रमुखता में अट्ठासी सहस्र ऋषि उन दिनों निवास कर रहे थे और उन्होंने बहुत दीर्घकाल तक के लिए सत्र [2] प्रारम्भ कर रखा था। चक्रतीर्थ में स्नान करके, तीर्थकृत्य समाप्त करने के पश्चात श्रीबलराम वहाँ पहुँचे जहाँ ऋषियों का सत्र चल रहा था। उस समय ऋषिगण हवनादि करके पुराण श्रवण करने बैठे थे। भगवान संकर्षण के पहुँचने पर महर्षि शौनक तथा दूसरे सब ऋषि-मुनिगण उठकर खड़े हो गये। सबको बलराम जी ने प्रणाम किया और उन अनन्त को ऋषि-मुनियों ने प्रणाम किया। सपरिवार श्रीबलराम का मुनियों ने सत्कार किया। कथा-स्थल की मर्यादा के अनुसार उनको आसन दिया। चन्दन, माला, तुलसी प्रदान की प्रसाद-स्वरूप। उनके साथ आये सभी का यथोचित सत्कार किया। अत्यन्त सम्मानित अतिथि के पधारने पर कथा के मध्य में अल्प-विराम करके अतिथि का उचित सत्कार करना प्राचीन शिष्टता ही है। जब सत्कार करके, प्रसाद देकर सब ऋषि-मुनि यथास्थान बैठ गये, अपने चारों ओर खड़े ऋषि-मुनियों का समुदाय अपने आसनों पर जा बैठा तब श्रीबलराम जी का ध्यान सर्वोच्च आसन पर, व्यासपीठ पर शान्त बैठे भगवान व्यास के पौराणिक शिष्य रोमहर्षण की ओर गया। व्यासपीठ पर आसीन होने के कारण वे उठे नहीं थे और न उन्होंने प्रणाम ही किया था। 'यह सूत है- प्रतिलोमज है, यह इन ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों के समाज में सर्वोच्च आसन पर कैसे बैठा है?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सिद्धपुर
- ↑ यज्ञ में हवन प्रधान होता है किन्तु सत्र में यज्ञ तो होता ही है, प्रधानता कथा सत्संग की रहती है।
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