श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
63. अश्वत्थामा की याचना
'मैं याचक होकर आया हूँ।' अश्वत्थामा बोला- 'आप उदार चक्र-चूड़ामणि हैं। आपके लिए ब्राह्मण को अदेय कुछ भी नहीं है। आपके ब्रह्मण्यदेव सुयश ने ही मुझे प्रलुब्ध किया है, किन्तु......।' 'आप संकोच त्यागकर आज्ञा करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने तनिक स्मितपूर्वक कहा। 'मैं आपसे आपके अमोघ चक्र की याचना करता हूँ।' अश्वत्थामा ने अपनी माँग प्रस्तुत कर दी। इसके बदले आप मेरे मस्तक में लगी मणि ले लें, यह मणि संसार में अत्यन्त दुर्लभ है।' 'मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' श्रीकृष्ण का स्वर-शांत गंभीर था- 'यदि आप इसे उठा सकें, अवश्य ले जायँ। मणि आप अपने ही समीप रहने दें। मुझे मणि नहीं चाहिए। चक्र के अतिरिक्त भी मेरी गदा, खड्ग, धनुष यहाँ हैं। जो-जो आयुध आप उठा सकें, वह सब ले लें।' चक्र संपत्ति नहीं है कि उसे कोई कहीं धर रखेगा। वह आयुध है और आयुध का उसी के लिए उपयोग है जो उसका प्रयोग करने की क्षमता रखता हो। जो उसका प्रयोग ही न कर सके, वह आयुध माँगे तो उसकी याचना का कोई अर्थ नहीं है। उनकी माँग अज्ञ बालक के समान है। अश्वत्थामा को भी श्रीकृष्ण की बात में कोई असंगति नहीं लगी। अश्वत्थामा उठा और उसने चक्र को एक हाथ से उठाने का प्रयत्न किया। जब वह इसमें असफल हो गया तो उसने दोनों हाथ लगाकर पूरा बल लगाया, किन्तु चक्र उससे अपने स्थान से नहीं उठा। अब लज्जा से मस्तक झुकाकर वह जाने के लिए प्रस्तुत हुआ। उसने कहा- 'आपका चक्र त्रिभुवन में अद्वितीय है और उसे उठाने में केवल आप ही समर्थ है।' 'मुझे बहुत खेद है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'यदि आप कोई और आज्ञा करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने अश्वत्थामा को बहुत से उत्तम अश्व तथा रत्न देकर संतुष्ट किया। अंत में उससे सविनय पूछा- 'यदि अनुचित न हो, आप चक्र लेकर क्या करना चाहते थे, यह बतलाने की कृपा करें।' 'मैं आपका चक्र लेकर, आप पुरुषोत्तम वासुदेव को प्रणाम करके आपसे ही युद्ध करना चाहता था।' अश्वत्थामा ने स्पष्ट कह दिया- 'आप मेरी धृष्टता को क्षमा करें।' 'मैं ब्राह्मण के ऊपर शस्त्र नहीं उठाता।' श्रीकृष्ण ने गंभीरतापूर्वक अश्वत्थामा की ओर देखा- 'लेकिन धनंजय मेरा अभिन्न स्वरूप है। मुझसे युद्ध की आपकी कामना वह संतुष्ट कर देगा अवसर आने पर।' अज्ञ अश्वत्थामा, चिद्घनवपु श्रीकृष्णचन्द्र के अस्त्र, आभरणादि सब चिन्मय हैं, यह कभी स्वप्न में भी उसने नहीं सोचा था। चक्र उन चक्रपाणि के अतिरिक्त दूसरे किसी का आयुध बन नहीं सकता, यह बात उसकी कल्पना में ही नहीं थी। द्वारिका से वह अपने सब स्वप्न खोकर लौटा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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