श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
61. साम्ब की सूर्योपासना
"आर्य! आप अनन्त करुणावरुणालय हैं और अघी, अपराधी, अनधिकारी प्राणियों को भी सदा अपनाते आये हैं।" श्रीकृष्ण ने अग्रज को मस्तक झुकाया। 'यह स्तुति इस समय रहने दो।' 'आपने अभय दे दिया, अब शेष क्या रहा।' भगवान संकर्षण किसी को अपना लें उनका आशीर्वाद प्राप्त हो जाय तो श्रीकृष्ण उससे रुष्ट कैसे रह सकते हैं। उन्होंने हँसकर कह दिया- 'उसे उसी सरोवर के समीप भगवान भास्कर की आराधना करनी चाहिए।' साम्ब ने श्रीबलराम जी से ही मन्त्र तथा सम्पूर्ण विधि प्राप्त की। वे रैवतक गिरि पर रहकर सूर्योपासना करने लगे। त्रिकाल स्नान, रक्त चन्दन, रक्त कर्णिकार पुष्प से सूर्य-अर्चा तथा सूर्य मन्त्र का जप। लवण उन्होंने सर्वथा त्याग दिया। दिन में केवल एक बार ही अन्न का आहार करते थे। सूर्य नेत्राधि देवता हैं और नेत्र रोगों में सूर्योपासना, रविवार का व्रत बहुत महत्त्व का प्राचीन समय से माना गया है। रंगो की उपलब्धि विनाश का संबंध भी सूर्य रश्मियों से ही है, इतनी बात सीधी है किन्तु साम्ब के संबंध में तो तथ्य यह था कि उन्हें रोग अपने पिता के शाप से हुआ था। दूसरा कोई उसका निवारण कर सके, संभव नहीं था। सूर्यनारायण उन श्रीद्वारिकाधीश के ही स्वरूप हैं, अतः उनकी आराधना बतला दी गयी थी। साम्ब के शरीर के श्वेत स्थान काले पड़ने लगे, धब्बे घटते गये। एक वर्ष आराधना करके उनको पूर्ववत स्वस्थ शरीर मिला किन्तु साम्ब ने जीवन-पर्यन्त रविवार का व्रत रखा और वे नैष्ठिक सूर्योपासक बने रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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