श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. प्रेम का आदर्श
महर्लोक, जनलोक, तपोलोक के ऋषि-महर्षि सुनते ही श्रवणों पर हाथ रख लेते थे- 'शान्तं पापम! शान्तं पापम।
'भगवान भूतनाथ समाधि में बैठे मिले कैलास जाने पर और बिना सुने ही सर्वज्ञा जगदम्बा ने कह दिया- 'आप यहाँ से पधारें। आपका प्रयोजन पूर्ण करने वाला कोई नहीं है।' जब मनुष्य व्याकुल होता है, न ढूँढने के स्थान पर भी जाता है। देवर्षि अधोलोकों में भी पहुँचे किन्तु बलि, प्रह्लाद, मय सबने कह दिया- 'हममें तो भक्ति का लेश भी नहीं है। अपने आराध्य को ही पद-रज देने की अधमता हम कैसे कर सकते हैं।' यही कठिनाई भूतल पर भी थी। जो भक्त थे मानने को ही प्रस्तुत नहीं थे कि उनमें प्रेम का, भक्ति का लेश भी है। श्रीकृष्णचन्द्र को तो दूर, देवर्षि तक को अपनी पद-रज का स्पर्श देने में उनके प्राण काँपते थे। वे प्रस्ताव सुनकर ही कातर हो उठते थे। 'मैं त्रिलोकी में घूम आया।' देवर्षि बहुत खिन्न, बहुत निराश लौटे द्वारिका और प्रायः रुदन जैसे स्वर में बोले- 'आपको आपका कोई भक्त अपनी पद-रज देने को प्रस्तुत नहीं है। मैंने अपनी समझ से सभी भक्तों से याचना कर ली।' 'आप व्रज गये थे?' श्रीकृष्णचन्द्र ने पूछा। 'मेरी गोपियों ने भी मना कर दिया आपको?' 'वहाँ तो मैं गया नहीं?' 'देवर्षि! वहाँ का सेवक भी अस्वीकार नहीं करेगा।' श्रीकृष्णचन्द्र ने स्थिर स्वर में कहा- 'किन्तु आप गोपियों तक चले जायँ कृपा करके।' देवर्षि नारद व्रज पहुँचे तो आकाश से पृथ्वी पर उतरने से पूर्व ही यमुना-पुलिन पर बैठी गोपियों का समूह उन्हें दीख गया। नारद जी मार्ग में सोचते आये थे- 'पद-धूलि श्रीव्रजराज संभवतः दे देंगे। संभव है श्रीकृष्ण को सखा कहने वाले गोप भी दे दें। ब्रजरानी यशोदा जी दे देंगी इसमें सन्देह है और गोपियां तो दे सकती ही नहीं।' वहाँ का सेवक भी अस्वीकार नहीं करेगा।' श्रीकृष्णचन्द्र की यह बात देवर्षि को ठीक नहीं लगी थी। गोपियों को देखकर मन में आया- 'इस बात की परीक्षा भी कर ली जाय।' देवर्षि को देखते ही गोपियाँ उठ खड़ी हुई। सबने भूमि में मस्तक रखकर प्रणाम किया और बड़ी आशा भरे स्वर में पूछा- 'आप कहाँ से आ रहे हैं?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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