श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. मान-भंग
सिंहासन पर द्विभुज को दण्डधारी बने श्रीकृष्णचन्द्र आसीन थे। हनुमान जी ने दण्डवत प्रणिपात किया सम्मुख पहुँचकर तो बड़े स्नेह से उन्हें उठाया। चरणों के समीप वीरासन से अंजलि बाँधकर वे प्रभंजनतनय ऐसे बैठ गये जैसे अयोध्या के सिंहासन के समीप ही बैठे हों। बैठते ही मस्तक झुकाया उन्होंने मानो कुछ कहना हो। 'क्या कहना है वत्स?' बड़े प्रेम से पूछा गया। 'आज अम्बा के दर्शन नहीं हुए।' श्रीहनुमान जी ने मुख नीचे झुकाये हुए ही कहा- 'प्रभु सर्वसमर्थ हैं किन्तु उनका स्थान आज यह किस दासी को देकर प्रभु ने सत्कृत किया है?' सत्यभामा जी का मुख लज्जा से लाल हो उठा। वे उसी क्षण उठकर भाग गयीं भीतर। उन्होंने स्वयं रुक्मिणी को भेजते हुए उनसे कहा- 'बहिन! तुम्हीं जाओ! वह तुम्हारा वानर-पुत्र आया है और दूसरी सबको वह दासी ही समझता है।' सत्यभामा जी रो पड़ीं। 'ओह! हनुमान आया है।' रुक्मिणी जी तो ऐसी वात्सल्य विभोर हुई कि उन्होंने सत्यभामा जी के अश्रु पर ध्यान नहीं दिया। वे जैसे थीं वैसे ही चली आयीं श्रीद्वारिकाधीश के समीप और जैसे ही आयीं हनुमान जी ने उठकर उनके पादपद्मों में मस्तक धर दिया- अम्बे!' 'तुम अच्छे आये हनुमान' 'यह एक खिलौना मिल गया था द्वार पर।' अब श्रीमारुति ने चक्र को मुख में से निकालकर बाहर छोड़ दिया- 'इसे इतना भी पता नहीं कि मुझे आपने अपने श्रीचरणों में पहुँचने की अबाध अनुमति दे रखी है।' चक्र को तो अब स्नान करना था। इसी समय समुद्र जल से भीगे क्लान्त गरुड़ आये। उनकी ओर देखकर श्रीआंजनेय ने कहा- 'आपने इस अत्यन्त दुर्बल मन्दगति पक्षी को वाहन बना लिया तो यह धृष्ट हो गया है। जब कभी शीघ्रगमन आवश्यक हो तो इस सेवक को स्मरण कर लिया करें।' 'तुम्हारे स्कन्ध पर एक साथ हम दोनों भाई वन-यात्रा के समय बैठ लेते थे वत्स।' अत्यन्त स्नेहपूर्वक कहा गया- 'राजधानी में पहुँचकर तो यह उपयुक्त नहीं रहा। अब तुम्हारी ये अम्बा इसे स्वीकार नहीं करतीं कि उनके पुत्र को कोई वाहन बनावे। 'तुम्हें देखने की बहुत इच्छा थी हनुमान!' श्रीरुक्मिणी जी ने कहा। माता को अपने स्नेहभाजन सुत को देखने की इच्छा हो-स्वाभाविक बात थी और अब हनुमान जी को क्यों बुलाया गया, यह पूछना अनावश्यक हो गया। गरुड़ ने, चक्र ने और श्रीसत्यभामा जी ने भी समझ लिया कि शक्ति, गति, सौन्दर्य, सद्गुण के नित्यधाम तो श्रीद्वारिकाधीश ही हैं, जिस पर वे कृपा करें वही इनसे सम्पन्न रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सूर्य मण्डलाधि देव
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