श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. दन्तवक्र-विदूरथ-मरण
'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम।' [1] दन्तवक्र गदा युद्ध करने आया था। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी- एक भरपूर गदा वह कृष्ण के वक्ष पर मार सके, बस। श्रीद्वारिकाधीश उसे देखते ही रथ से कूदे और गदा उठाये दौड़े दन्तवक्र के सामने। दन्तवक्र रुका। उसने अपनी भारी वज्र के समान गदा उठाई और श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर भरपूर वेग से प्रहार किया। उन मधुसूदन ने यह आघात रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया था। जैसे वे पूजोपहार ग्रहण करते हैं, गदाघात वक्ष पर ले लिया और उससे उनके श्रीअंग में कम्पन तक नहीं हुआ। अब श्रीद्वारिकाधीश ने अपनी कौमोदकी गदा उठाकर दन्तवक्र के वक्ष पर प्रहार किया वक्ष फट गया दन्तवक्र का। पसलियाँ चूर-चूर हो गयीं। मुख से रक्तवमन करता वह चक्कर खाकर गिरा। सहसा उसके मुख से वैसी ही ज्योति निकली जैसे शिशुपाल के शरीर से निकली थी। यह ज्योति भी श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में लीन हो गयी। दन्तवक्र को सद्गति देकर श्रीकृष्ण अभी अपने रथ पर बैठने ही जा रहे थे कि दन्तवक्र का छोटा भाई विदूरथ आ पहुँचा। वह रथ दौड़ाता ही आया था किन्तु दूर से उसने बड़े भाई को गिरते देख लिया। रथ त्यागकर तलवार-ढाल लेकर टूट पड़ा वह श्रीकृष्ण पर। विदूरथ तलवार का धनी था। किन्तु नेत्रों के सम्मुख बड़े भाई को मरते देखकर धर्मयुद्ध के नियम भूल गया था। श्रीकृष्ण पैदल थे और उनके कर में केवल गदा थी। विदूरथ को गदायुद्ध नहीं करना था तो उसे पुकारकर श्रीकृष्ण को तलवार उठाने के लिए सावधान करना चाहिए था और इतना समय देना था। उसने क्रोधावेश में यह कुछ नहीं किया। वह तो चाहे जैसे बने अपने अग्रज को मारने वाले को मार देना चाहता था। जब प्रतिपक्षी धर्मयुद्ध का ध्यान न रखे, दूसरा भी स्वतंत्र हो जाता है। श्रीकृष्ण का चक्र तो हाथ उठाते ही उनके करों में आ जाता है। उन्होंने विदूरथ का मस्तक चक्र से काट फेंका। इस प्रकार शाल्व, दन्तवक्र, विदूरथ तीनों कुछ ही क्षण के अंतर में वहाँ रणभूमि में मारे गये। श्रीद्वारिकाधीश को अब नगर प्रवेश का अवकाश मिला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भगवद गीता 4 .11
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