श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. शाल्व-शमन
शाल्व को शीघ्र पता लग गया कि द्वारिका का मुख्य भाग उसके विमान के लिए भी अगम्य है। वह नगर को जितनी सरलता से नष्ट करने योग्य समझता था, वैसी बात नहीं है। नगर किसी भी अजेय दुर्ग की अपेक्षा भी अधिक सुरक्षित है। शाल्व की सेना नगर के बाह्योपवन तथा उद्यानों को नष्ट करने लगीं। शाल्व के सौभ विमान से गोपुरों पर, चतुरष्क महाद्वारों पर, भवनों की अट्टालिकाओं के ऊपरी भाग पर, क्रीड़ा स्थलों पर शस्त्रों की वर्षा प्रारम्भ हो गयी। त्वरित गति से बहुत तीव्र आक्रमण युद्ध कला की एक अत्यन्त विशिष्ट पद्धति है। इसमें आक्रान्त के सावधान होने से पूर्व ही आक्रमणकारी को बहुत अधिक क्षति पहुँचा देने का अवसर मिल जाता है। शाल्व ने यही पद्धति युद्ध में अपनायी। भगवान संकर्षण ने नगर के भीतरी भाग की रक्षा सम्हाल ली। शाल्व इतना मूर्ख नहीं था कि यह न जानता हो कि यदि उसका विमान नगर के मध्य भाग की ओर पहुँचा तो हलधर का हल अनन्त गगनों में से भी उसे खींचकर पटक देगा। अतः राज-भवन, अन्तःपुर अथवा नगर के मुख्य भाग पर आक्रमण असम्भव था। शाल्व के आक्रमण से नगर के लोगों में भय की लहर दौड़ी तो तत्काल प्रद्युम्न की घोषणा नगर के प्रत्येक मार्ग में गूँजने लगी- 'किसी को भयभीत नहीं होना चाहिए। शत्रु का शीघ्र दमन कर दिया जायेगा। केवल आप सब अभी गृहों से बाहर न निकलें और भवन की छतों पर न जायें। मायावी शत्रु गगन से आक्रमण कर रहा है।' शाल्व के विमान से शिलाएँ, वृक्ष वज्र, कीचड़, धूलि ही नहीं बरस रही थी, सर्प तक नगर में गिराये जा रहे थे। प्रचण्ड चक्रवात उत्पन्न करके शाल्व ने दिशाओं को घूलि से भर दिया था। इसलिए लोगों को भवनों के गवाक्ष बन्द कर लेने पड़े थे और वे भयभीत भी हो गये थे। अनेक बार शक्ति का उन्माद व्यक्ति से बुद्धिहीनता के कार्य करवाता है। शाल्व ने जब देखा कि वह द्वारिका के मुख्य भाग पर आक्रमण नहीं कर सकता, आतंक युद्ध पर उतर आया था। यह युद्ध उसके अपने ही विरुद्ध पड़ रहा हैं, यह उसने नहीं देखा। उसके द्वारा उत्पन्न अन्धड़ ने लोगों के भवन के द्वार, गवाक्षादि बन्द करने को विवश कर दिया; अब उसके द्वारा फेंके गये सर्प स्वयं उसी की शिला एवं वृक्षों तथा शस्त्र-वर्षा में मारे गये क्योंकि वे भवनों के ऊपर या मार्गों पर ही पहुँच सके थे। उन्हें किसी पर आक्रमण का अवसर ही नहीं मिला। यादव शूर बहुत शीघ्र तत्पर हो गये। प्रद्युम्न के नेतृत्व में सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, अक्रूर, हार्दिक्य, भानुविन्द, गद, शक, सारण आदि महारथी अपने रथों से सेना के साथ मार्गों पर आये और द्वारिका के सभी मार्गों से चारों ओर से नगर द्वारों की ओर शंखनाद करते, जयघोष करते चले तो नगरजनों में फैला आतंक समाप्त हो गया। लोगों में उत्साह आ गया, उन्हें अपने शूरों पर शक्ति पर विश्वास था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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