श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. दिनचर्या
पुष्पमाल्य, चन्दन, अंगराग, ताम्बूल- ये पदार्थ भी ब्राह्मणों को, आदरणीयजनों को पहिले मिल चुके हैं यह ध्यान रखना आवश्यक माना जाता था। श्रीकृष्णचन्द्र तो सभी सम्बन्धियों, रानियों तथा सेवकों तक को इतना उचित वितरण हो चुका है, यह ठीक-ठीक देखकर तब इनका उपयोग करते थे। दिन का प्रथम प्रहर इस प्रकार आराधना एवं अपने सम्बन्धितजनों के सत्कार में लग जाता था। तब तक सारथि दारुक द्वार पर रथ लेकर उपस्थित हो जाते थे। श्रीद्वारिकाधीश सात्यकि, उद्धव के साथ रथ में बैठकर राजसभा में उपस्थित होते थे। दिन का द्वितीय प्रहर प्रजा की सेवा का, राजसभा में उपस्थित रहने का काल था।[1] प्रजा को कोई कष्ट हो, किसी को कुछ प्रार्थना करनी हो, कोई अभियोग हो तो वह इस समय उपस्थित होता था सुधर्मा-सभा में। द्वारिका में यह सब होता था, बहुत होता था और प्रतिदिन होता था, किन्तु उसकी कल्पना भी आज कठिन है। अधिकांश लोगों को कष्ट था कि उन्हें अतिथि-सत्कार का अवसर, अतिथि नहीं मिलते। सबकी प्रार्थना उनके चित्त में अपने अत्यन्त उदार आराध्य के चरणों में अनुराग हो। अभियोग भी बहुत थे। प्राय: दो श्रेणी के अभियोग- एक यह कि अमुक-अमुक की सेवा करना उनका स्वत्व है, किन्तु उन्हें इससे वंचित किया जाता है। कोई दूसरा यह अधिकार छीन रहा है या सेवा अथवा सामग्री स्वीकार नहीं की जा रही है। दूसरे प्रकार का यह अभियोग कि लोग अकारण उनके यहाँ उपहार भेजकर उन्हें परिग्रह को बाध्य करते हैं अथवा अज्ञात लोग उनकी कोई सेवा करके उन्हें आलस्य की ओर अग्रसर होने का प्रोत्साहन देते हैं। ऐसे अभावों, प्रार्थनाओं, अभियोगों को सुनकर, हँसकर टाला ही तो जा सकता है। राज-सभा जब कार्य व्यस्त न हो- प्रायः ऐसा ही अवसर रहता था द्वारिका में और यही अवसर था उपमन्त्रियों, कलाजीवियों के लिए। वाक-चातुर्य सम्पन्न अपने परिहास से और नट-नर्तक, संगीतकार, चित्रकार आदि गायन, वादन, नृत्य, चित्र, मूर्ति आदि के प्रदर्शन से श्रीद्वारिकाधीश को प्रसन्न करते थे। उन्हें उनकी आशा से बहुत अधिक पुरस्कार प्राप्त होता था। पृथ्वी के ही नहीं, स्वर्ग और असुरों के भी कलाकार आते थे श्रीकृष्णचंद्र का दर्शन प्राप्त करने और उनमें से बहुत स्थायी आवास बना लेते थे द्वारिका में। जहाँ त्रिभुवन के स्वामी साक्षात निवास करें, वहीं तो विद्या, कला के, सच्चे आराधक भी आश्रय पा सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अकल्पनीय समृद्ध था भारतवर्ष। हमारे आह्निक ग्रन्थ कहते हैं कि गृहस्थ के लिए उपार्जन का काल केवल एक प्रहर- दिन का द्वितीय प्रहर है और निद्रा के लिए रात्रि का तृतीय प्रहर। शेष समय उपासना एवं आनन्द-उल्लास का काल है। राजपुरुष उपार्जन काल-दिन के द्वितीय प्रहर में राजकार्य करते थे।
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