श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
46. अग्रजानयन
यह चर्चा अनेक बार सुनी थी और उस ऋषि कुमार को देखकर तो माता का हृदय व्याकुल हो उठा था। उनके 6 पुत्र कंस ने मार दिये। जब मरा पुत्र आ सकता है, उनके वे 6 कुमार- माता देवकी तभी से अवसर की प्रतीक्षा में थीं। ग्रहण के मेले में उनके राम-कृष्ण बहुत व्यस्त थे। वहाँ से कहीं जा नहीं सकते थे। अब द्वारिका आ गये और आज जब वसुदेव जी ने स्तुति की, माता को भी अवसर मिला। 'राम! तुम अप्रमेय पराक्रम हो। कृष्ण! तुम योगेश्वरेश्वर हो। जानती हूँ कि तुम दोनों सृष्टि में परम कारण आदिपुरुष हो। तुम भू-भार स्वरूप उच्छ्रंखल राजाओं के विनाश के लिए अवतीर्ण हुए हो। जिनके अंशांश से विश्व की उत्पत्ति, स्थिति प्रलय के अधीश्वर प्रकट होते हैं, उन तुम दोनों की मैं शरण हूँ।' माता ने स्तुति बहुत न करके अपना तात्पर्य स्पष्ट कर दिया- 'तुम दोनों ने बहुत दिन के मरे गुरुपुत्र को लाकर गुरुदक्षिणा दी थी। तुम्हारे 6 अग्रजों को कंस ने मार दिया। मैं उनका देखना चाहती हूँ, मेरी यह कामना पूरी कर दो।' 'जो आज्ञा।' दोनों भाइयों ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया। सुतल पहुँचे दोनों भाई। योगमाया का आश्रय लेकर ही पहुँचना था। वहाँ तक वाहन तो जा नहीं सकता था और जब कहीं प्रकट ही हो जाना था- दूरी और देर का प्रश्न ही कैसा। सहसा दैत्यराज बलि ने देखा कि उनके सम्मुख नीलवसन श्रीसंकर्षण और पीताम्बरधारी श्रीकृष्णचन्द्र प्रकट हो गये हैं। बलि आनन्द विभोर हो उठे- 'मेरे आराध्य पधारे।' सिंहासन से उठकर बलि ने साष्टांग प्रणिपात किया। उनके स्वजन परिवार सबने चरण-वन्दना की। आसन पर जब वे बैठ गये, उनके चरण धोए दैत्यराज ने और उस चरणोंदक को मस्तक पर चढ़ाया। भली प्रकार दोनों की पूजा की। सुतल के सुरदर्लभ महामूल्यवान वस्त्र, मणि-भूषण अर्पित किये और पूजन के पश्चात पादपीठ के समीप श्रीकृष्णचन्द्र के दोनों चरण गोद में लेकर बैठ गये। 'आप अनन्त को और पुरुषोत्तम को नमस्कार।' गद्गद स्वर, पुलकित तन, साश्रु नयन, आनन्द विह्ल मन, बलि स्तवन कर रहे थे- 'हम रजोगुणी, तमोगुणी स्वभाव-वाले दैत्य और आपका अहैतुक अनुग्रह कि आपने यहाँ पधारकर हमें दर्शन दिया। हम दैत्य दानवादि आपसे सदा शत्रुता करने वाले किन्तु आप में 'स्व-पर' भेद कहाँ है। आप तो वैर भाव से अपना स्मरण करने वाले हम सबको सदा से अपनाते आये हैं। आपकी योगमाया से मोहित योगेश्वरगण भी आपको नहीं जानते, हम तमोगुणी हैं। लेकिन अब आप यहाँ पधारे हैं तो अपने इस सेवक को आज्ञा करें। आपकी आज्ञापालन करके, आपके आदेश श्रुति पर श्रद्धा करके मनुष्य मुक्त हो जाता है। मुझे भी आज्ञापालन का अवसर देकर निष्पाप बनाइये।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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