श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. वसुदेव जी का यज्ञ
कोई कुछ भी कहे, कितना भी समझावे, व्यक्ति वही समझता है जो समझने की उसके चित्त की स्थिति होती है। वसुदेव जी को यज्ञ करने की बात समझ में आ गयी। उन्होंने उन सब महर्षियों से प्रार्थना की कि वे थोड़ा समय यहाँ और रुकें। यहीं यज्ञ सम्पन्न कराके तब पधारें। सभी ने वसुदेव जी के यज्ञ में ऋत्विक होना स्वीकार कर लिया। ऋषियों ने उसी समय यज्ञ की विधि का, सामग्री का निर्देश किया और तैयारी प्रारम्भ हो गयी। यज्ञमण्डप बनने में कितना समय लगना था। महर्षिगणों के शिष्य वेदियाँ तथा उनके मण्डलादि बनाने में लग गये। ऋषियों ने वसुदेव जी से देह-शुद्धि आदि संस्कार प्रारम्भ करवाये। सभी राजा सपरिवार आमन्त्रित किये गये। दूसरे भी सम्मान्य जन आमन्त्रित हुए। सब सपत्नीक, सपरिवार वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर पधारे। वसुदेव जी अपनी अठारहों पत्नियों के साथ यज्ञ में दीक्षित हुए। उनके सब पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र सपत्नीक यज्ञ मंडप में उपयुक्त यज्ञीय सेवा में लग गये। धरा पर ही नहीं, अमरावती में भी दुर्लभ दृश्य। इतना महत्तम परिवार प्रायः सब श्रेष्ठतम महर्षिगण सशिष्य यज्ञ कराने वाले और प्रायः सब नरेश, विद्वान उस यज्ञ में सपरिवार उपस्थित सुरों ने स्वयं साकार उपस्थित होकर आसन तथा अपना भाग स्वीकार किया। समन्तकपंचक ह्रदों[1] में अवभृथ स्नान[2] का महोत्सव और अपार धन, धेनु, वस्त्र, अलंकारादि दान सबको सत्कारपूर्वक भोजन करवाकर उपहारों से, अमित उपहारों से सन्तुष्ट कर दिया वसुदेव जी ने। अद्वितीय यज्ञ उनका। पूरे देश में वर्षों तक उस यज्ञ की चर्चा लोग करते रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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